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________________ २९८ महाबंधे टिदिबंधाहियारे दादीणं पि सो चेव बीइंदि० तप्पाश्रोग्गविसुद्ध० । अपज्जत्त० पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो । णवरि बेइंदियो ति भाणिदव्वं । १२५. पंचमण-तिएिणवचि० खवगपगदीणं मूलोघं । णिदा-पचला. जह० हिदि कस्स० १ अएण. अपुव्वकरणखवग० णिहापचलाणं बंधचरिमे वट्टमारणस्स। थीणगिद्धितिय-मिच्छत्त-अणंताणुबंधि०४ जह० हिदि. कस्स० ? अण्ण० मणुस. मिच्छा० सागार-जा० सव्वविसुद्ध० संजमाभिमुहस्स जह• हिदिवं० । असादा०अरदि०-[सोग]-अथिर-असुभ-अजस जह• हिदि० कस्स. ? अण्ण० पमत्तसंजदस्स सागार-जा० तप्पाअोग्गविसु० जह• हिदि० वट्ट । अपञ्चक्रवाणा०४ जह० हिदि० कस्स० १ अण्ण. मणुस असंजदसम्मादिहि० सागार-जा० सव्वविसुद्ध० संजमाभिमुहस्स जह० हिदि० वट्ट० । पञ्चक्खाणा०४ जह• हिदि० कस्स ? अएण. मणुसस्स संजदासंजद० सागार-जा० तप्पाओग्गसव्वविसु० संजमाभिमुह० जह इनके अपर्याप्तकोंमें अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है । इतनी विशेषता है कि यहांपर भी द्वीन्द्रिय अपर्याप्तको जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कहना चाहिए। विशेषार्थ--त्रस और त्रसपर्याप्त जीवों में पांच ज्ञानावरण आदि २५ प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपक श्रेणिमें होता है । वैक्रियिक छहका जघन्य स्थितिबन्ध पञ्चन्द्रिय असंही पर्याप्तके होता है। नरकायु और देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध संज्ञी या असंशी पञ्चेन्द्रियके होता है । इनके सिवा शेष प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। त्रस अपर्याप्तकोंमें द्वीन्द्रिय अपर्याप्त सब जघन्य स्थितिबन्ध होता है, इसलिए त्रस अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी द्वोन्द्रिय अपर्याप्तक जीव कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है। १२५. पांचों मनोयोगी और तीन वचनयोगी जीवोंमें क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मूलोघके समान है। निद्रा और प्रचला प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्ध का स्वामी कौन है ? अन्यतर अपूर्वकरण क्षपक जो निद्रा और प्रचलाके बन्धके अन्तिम समयमें अवस्थित है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। 'स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चतुष्कके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मनुष्य मिथ्यादृष्टि जो साकार जागृत है, सर्व विशुद्ध है, संयमके अभिमुख है और जघन्य स्थितिन्धमें अवस्थित है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिवन्धका स्वामी है । असाता वेदनीय, अगति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकोति प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर प्रमत्तसंयत जीव जो साकार जागृत है, तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है और जघन्य स्थितिबन्धमै अवस्थित है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । अप्रत्याख्यानावरण चतुष्कके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जो असंयत सम्यग्दृष्टि है, साकार जागृत है, सर्व विशुद्ध है, संयमके अभिमुख है और जघन्य स्थितिषन्धमें अवस्थित है वह उक्त चार प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । प्रत्याख्यानावरण चतुष्कके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मनुष्य जो सयंतासंयत है, साकारजागृत है, तत्प्रायोग्य सर्व विशुद्ध है, संयमके अभिमुख है और जघन्य स्थितिबन्धमें अवस्थित है यह उक्त चार प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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