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________________ १६ महाबन्ध इन दो खण्डों के सिवा शेष खण्डों के प्रारम्भ में स्वतन्त्र मंगल सूत्र क्यों नहीं रचे गये, इस पर वीरसेन स्वामी वेदनाखण्ड के प्रारम्भ में मंगलसूत्रों का उपसंहार करते हुए कहते हैं 'उवरि उच्चमाणेसु तिसु खंडेसु कस्सेदं मंगलं! तिण्णिखंडाणं । कुदो? वग्गणामहाबंधाणमादीए मंगलाकरणादो ।' (पृ. १०५) 'आगे कहे जानेवाले तीन खण्डों में से किस खण्ड का यह मंगल है? आगे कहे जानेवाले तीनों खण्डों का यह मंगल है; क्योंकि वर्गणा और महाबन्ध इन दो खण्डों के प्रारम्भ में मंगल नहीं किया गया है ।' इस उल्लेख से यह स्पष्ट प्रतिभासित होता है कि वीरसेन स्वामी के मतानुसार वेदनाखण्ड के प्रारम्भ में आया हुआ मंगल ही महाबन्ध का मंगल है और इसीलिए वहाँ अलग से मंगल नहीं किया गया है। पर मूडबिद्री की ताडपत्रीय प्रति के आधार से जो प्रतिलिपि होकर हमारे सामने उपस्थित है, उसमें प्रत्येक मुख्य अनुयोगद्वार के प्रारम्भ में ' णमो अरिहंताणं' यह मंगलसूत्र स्थापित किया गया है। प्रकृतिबन्ध का प्रथम ताड़पत्र त्रुटित होने के कारण उसके सम्पादन के समय यह समस्या उपस्थित नहीं हुई। वहां तो वीरसेन स्वामी की सूचनानुसार वेदनाखण्ड का मंगलाचरण लाकर उससे निर्वाह कर लिया गया । पर स्थितिबन्ध के प्रारम्भ में ' णमो अरिहंताणं' इस मंगल सूत्र को देखकर हमारे सामने यह प्रश्न था कि इस सम्बन्ध में क्या किया जाय। हमने इस सम्बन्ध में एक-दो विद्वानों से परामर्श भी किया। अन्त में सबकी सलाह से हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि यदि मूल प्रति में स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध के प्रारम्भ में यह मंगलसूत्र उपलब्ध होता है, तो उसे वैसा ही रहने दिया जाय । यद्यपि हम जानते हैं कि स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध से खण्ड का प्रारम्भ नहीं होता । 'महाबन्ध' खण्ड का प्रारम्भ तो प्रकृतिबन्ध से होता है, तथापि इन अनुयोगद्वारों के प्रारम्भ में इस मंगलसूत्र का निवेश कब किसने किया; इस बात का ठीक तरह से निर्णय करने का कोई साधन उपलब्ध न होने से उक्त मंगल सूत्र को यथास्थान रहने दिया गया है। हमारे विचार से ऐसा करने से एक बहुत बड़े सत्य की रक्षा हो जाती है । पाठक जानते ही हैं कि अमरावती से जो धवला का प्रकाशन हो रहा है, उसके प्रत्येक भाग के प्रथम व मुखपृष्ठ पर 'भगवत्पुष्पदन्तभूतबलिप्रणीतः' यह मुद्रित किया जाता है; जब कि सबको यह विदित है कि वीरसेन स्वामी के मतानुसार आचार्य पुष्पदन्त ने केवल सत्प्ररूपणा की रचना की है और आचार्य भूतबलि ने शेष छहों खण्डों की रचना की है। जीवस्थानद्रव्यप्रमाणानुगम के मुद्रण के समय आदरणीय डॉ. हीरालाल जी के सामने भी यह प्रश्न उपस्थित था। उस समय हम वहीं धवला कार्यालय में कार्य करते थे । प्रश्न यह था कि आचार्य पुष्पदन्त ने आचार्य भूतबलि के पास जिनपालित को केवल सत्प्ररूपणा लेकर भेजा होगा या अपनी रूपरेखा का ज्ञान भी कराया होगा । विचार-विनिमय के अनन्तर उस समय निश्चय हुआ था कि अधिकतर सम्भव तो यही है कि उन्होंने ग्रन्थ रचना के सम्बन्ध की समस्त विशेष जानकारी के साथ ही सत्प्ररूपणा लेकर जिनपालित को आचार्य भूतबलि के पास भेजा होगा और इस तरह श्रुतरक्षा का कार्य इन दोनों महान् आचार्यों के संयुक्त प्रयत्न का फल जानकर तब यही निर्णय किया गया था कि प्रत्येक भाग में दोनों आचार्यों के नाम यथाविधि दिये जाने चाहिए । इस समय जब हम महाबन्ध के प्रत्येक अनुयोगद्वार के प्रारम्भ में जीवस्थान के मंगलाचरणा को लिपिबद्ध देखते हैं, तो आँखों के सामने उस समय का समग्र इतिहास साकार रूप लेकर आ उपस्थित होता है। धन्य है वे प्रातःस्मरणीय चन्द्रगुफानिवासी आचार्य धरसेन, जिन्होंने अपनी वृद्धावस्था की चिन्ता न कर श्रुत-रक्षा की पुनीत भावना से अपने अनुरूप योग्य दो शिष्यों को प्राप्त कर उन्हें अपना समग्र ज्ञान समर्पित कर शान्ति की साँस ली और धन्य हैं वे परम श्रुतधर आचार्य पुष्पदन्त और भूलबलि, जिन्होंने गुरु आज्ञा को प्रमाण मानकर 'षट्खण्डागम' की रचना द्वारा न केवल अपने गुरु की इच्छा की पूर्ति की, अपितु सम्यक् श्रुत को जीवित रखने का श्रेय प्राप्त किया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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