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________________ सम्पादकीय १७ आभार किसी भी कार्य को योग्यतापूर्वक सम्पन्न करने के लिए अनुकूल साधन-सामग्री का सर्वोपरि स्थान है। हम दूसरों की नहीं कहते, अपनी ही कहते हैं। अनेक बार कुछ प्रमुख विषयों पर हमने लिखने का विचार किया, कई योजनाएँ बनायीं, पर अनूकूल साधनों के उपलब्ध न होने से एक भी पूरी न कर सके। कुछ का तो अब हमें ही स्वयं ज्ञान नहीं है। 'महाबन्ध' के सम्पादन की ओर मैं स्वयं ध्यान दूं, यह अनुरोध चिरकाल से मेरे निकटवर्ती व दूरवर्ती मित्र मुझसे करते आ रहे हैं। उनकी अन्तःप्रेरणावश ही मुझे इस ओर ध्यान देना पड़ा है। मैं श्रीमान् डॉ. हीरालाल जी को अपना अन्यतम हितैषी मानता हूँ। सम्पादन सम्बन्धी जो कुछ भी अनुभव और ज्ञान मुझे मिला है, यह उनकी ही सत्कृपा का फल है। अब भी वे मुझे अनेक उपयोगी सूचनाओं से अनुगृहीत करते रहते हैं। कुछ काल पूर्व उन्होंने मुझे एक अत्युपयोगी पत्र लिखा था। वे मेरी बिखरी हुई शक्ति को देखकर खिन्न से हो उठे थे। मेरे लिए उनका वह पत्र स्वरूपसम्बोधन के समान था। उससे मेरी न केवल निद्रा भंग हुई, अपितु मुझे अपने कर्तव्य का बोध हुआ। उसी का यह फल है जो इस समय पाठक देख रहे 'महाबन्ध' का प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ से हो रहा है। इसके संस्थापक श्रीमान् दानवीर सेठ शान्तिप्रसाद जी और अध्यक्षा उनकी सुयोग्य पत्नी श्रीमती रमारानी जी हैं। प्रारम्भ से ही इसके संचालन का उत्तरदायित्व श्रीमान् अयोध्याप्रसाद जी गोयलीय सम्हाले हुए हैं। वे ही इसके मन्त्री हैं। मुझे महाबन्ध के सम्पादक और प्रथम प्रूफ पाठ के लिए संस्था की ओर से हर तरह की सुविधाएँ उपलब्ध हैं। भारतीय ज्ञानपीठ के मैनेजर श्री बाबूलाल जी ‘फागुल्ल' तो सब बातों का ध्यान रखते ही हैं, साथ ही साथ, पं. महादेव जी चतुर्वेदी व्याकरणाचार्य का भी इस काम में हमें पूरा सहयोग मिलता रहता है। प्रथम प्रूफ हम उनके साथ ही मिलकर देखते हैं। इस प्रकार 'महाबन्ध' के सम्पादन में उक्त महानुभवों का प्रत्यक्ष और परोक्ष सम्बन्ध होने से ही हम इस काम का निर्वाह कर सके हैं, अतएव इन सबके हम आभारी हैं। अनुवाद और सम्पादन में हमने बहुत ही सावधानी से काम लिया है, फिर भी भ्रम या अज्ञानवश कुछ दोष रह जाना बहुत सम्भव है। उदाहरणार्थ-पृष्ठ २१, पंक्ति ७ में 'कम्मट्ठिदी कम्म०' के पहले 'अबाहूणिया' पाठ होना चाहिए। इसी प्रकार पृष्ठ २३६ पंक्ति २ में भी कोष्ठक के भीतर 'आबाधू०' पाठ अधिक हो गया है। अतएव विशेषज्ञ और स्वाध्याय प्रेमी बन्धु पूर्वापर का विचार कर इसका स्वाध्याय करें और जो दोष उनकी समझ में आवें, उनकी सूचना हमें अवश्य देने की कृपा करें। -फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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