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________________ कर्ममीमांसा १. कर्मवाद की युक्ति भारतीय दर्शन का अन्तिम लक्ष्य है-मुक्ति-प्राप्ति। इसमें जीव की उत्क्रान्ति, गति, अगति और परलोक विद्या का युक्तियुक्त विचार उपस्थित किया गया है। सब आस्तिक दर्शन इस विषय में एकमत हैं कि जीव अपनी कमजोरी के कारण बँधता है और उसके दूर होने पर मुक्त होता है । 'समयप्राभृत' में कहा है 'रत्तो बंधदि कम्मं मुंचदि जीवो विरागसंपत्तो । एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज ॥ १५०॥ तीर्थङ्करों का उपदेश है कि रागी जीव कर्मों को बाँधता है और वैराग्ययुक्त जीव उनसे मुक्त होता है । इसलिए शुभाशुभ कर्मों में अनुरागी होना उचित नहीं है । प्राचीन ऋषियों ने जीव की बद्ध और मुक्त दो अवस्थाएँ मानी हैं। इससे समस्त जीवराशि दो भागों में विभक्त हो जाती है - संसारी जीव और मुक्त जीव । जो संसार अर्थात् चतुर्गति योनि में परिभ्रमण करते रहते हैं, वे संसारी जीव हैं और जो इस प्रकार के परिभ्रमण से मुक्त हैं, वे मुक्त जीव हैं। प्रथम प्रकार के जीव राग, द्वेष और मोह के अधीन होकर निरन्तर पाँच प्रकार के संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं । समीचीन दृष्टि, समीचीन प्रज्ञा और समीचीन चर्या के प्राप्त होने के पूर्व तक वे इस परिभ्रमण से मुक्ति प्राप्त करने में असमर्थ रहते हैं। इससे प्रथम प्रकार के जीव संसारी कहलाते हैं । और ये ही जीव संसार का उपरम हो जाने पर मुक्त कहलाने लगते हैं । इनमें से संसारी जीव अनेक भागों में विभक्त हैं- कोई एकेन्द्रिय है और कोई द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ये सभी संसारी जीवों के ही भेद हैं । एकेन्द्रिय जीव पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक के भेद से पाँच प्रकार के हैं। जिनके एक मात्र स्पर्शन ( छूकर जाननेवाली) इन्द्रिय होती है, उन्हें एकेन्द्रिय जीव कहते हैं । ये पाँचों ही प्रकार के जीव स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा विषय ग्रहण करते हैं । इनके रसना ( चखकर जाननेवाली इन्द्रिय) आदि अन्य इन्द्रियाँ नहीं होतीं, इसलिए ये एकेन्द्रिय कहे जाते हैं । द्वीन्द्रिय जीव वे हैं जिनके स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियाँ होती हैं। लोक में लट, केंचुआ आदि ऐसे अगणित जीव देखे जाते हैं जो कभी तो स्पर्शन द्वारा विषय ग्रहण करते हैं और कभी रसना द्वारा, इसलिए इन्हें द्वीन्द्रिय जीव कहते हैं । त्रीन्द्रिय जीव वे हैं जिनके स्पर्शन, रसना और प्राण ( सुगन्ध और दुर्गन्ध का ज्ञान प्राप्त करनेवाली इन्द्रिय) ये तीन इन्द्रियाँ होती हैं। ये जीव इन इन्द्रियों द्वारा विषय ग्रहण करते हैं, इसलिए इन्हें त्रीन्द्रिय जीव कहते हैं। इनमें पिपीलिका, गोभी, यूक आदि जीवों की परिगणाना की जाती है । चतुरिन्द्रिय जीव वे हैं जिनके स्पर्शन, रसना, घ्राण और नेत्र ये चार इन्द्रियाँ होती हैं। ये जीव इन चार इन्द्रियों द्वारा विषय ग्रहण करते हैं, इसलिए इन्हें चतुरिन्द्रिय जीव कहते हैं । भ्रमर, पतंग और मक्खी आदि जीवों की इनमें गिनती की जाती है। जिनके स्पर्शन, रसना, घ्राण, नेत्र और श्रोत्र ये पाँच इन्द्रियाँ होती हैं वे पंचेन्द्रिय जीव हैं । समनस्क और अमनस्क ये इनके मुख्य भेद हैं। दूसरे शब्दों में इन्हें संज्ञी और असंज्ञी भी कहते हैं। उक्त पाँचों इन्द्रियों के साथ जिनके हेय और उपादेय पदार्थों का विवेक करने में दक्ष तथा क्रिया और आलाप को ग्रहण करनेवाला मन होता है वे समनस्क जीव हैं और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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