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________________ जहराणट्ठिदिबंध अंतरकालपरूवणा ४११ २६७. देवेमु तित्थय. जह• हिदि. जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा. देसू० । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । सेसाणं णिरयोघं । एवरि सगहिदी । भवण०-वाणवेत. पढयपुढविभंगो। णवरि सागरो० सादि. पलिदो सादि० । जोदिसिय याव सव्वह त्ति उक्कस्सभंगो। णवरि थीणगिद्धि०३-मिच्छ०अणंताणुबंधि०४ जह० अज' हिदि. जहअंतो०, उक्क० अप्पप्पणी हिदी । २६८.एइंदिए तिरिक्व०४ [जह०] जह• अंतो, उक्क अणंतकालं. अंगुलस्स असं० संखेज्जाणि वाससहस्साणि असंखेज्जा लोगा अंतोमु । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० यथासंखाए एइंदि०-बादर-बादरपज्जत-मुहुम-मुहुमपज्जत्ताणं । तिरिक्वायु० जह• हिदि० जह० खुद्दाभव समयू०, उक्क० पलिदो० असंखे० । अज० अणुक्क०अन्तर काल कमसे कम एक समय और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध हो जाता है, इसलिए शेष प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। शेष कथन सुगम है। २६७. देवों में तीर्थकर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अजघन्य स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर नारकियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि अपनी स्थिति कहनी चाहिए । भवन. वासी और व्यन्तर देवों में प्रथम पृथिवीके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि साधिक एक सागर और साधिक एक पल्य कहना चाहिए । ज्योतिषियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक उत्कृष्टके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके जघन्य और अजघन्य स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। विशेषार्थ-देवोंमें तीर्थकर प्रकृतिका जघन्य स्थितिवन्ध अन्यतरके सर्वविशुद्ध परिणामोंसे होता है, इसलिए यहाँ जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है;यह स्पष्ट हो है । मूलमें शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर नारकियोंके समान कहकर अपनी स्थिति कहनेकी सूचना की है सो इसका यह अभिप्राय है कि जिन प्रकृतियोंका मिथ्यादृष्टि और सासादनदृष्टिके ही वन्ध होता है, उनका नौवेयक तक, तिर्यञ्चगति आदिका सहस्रार कल्प तक और एकेन्द्रिय जाति आदि तीनका ऐशान कल्प तक बन्धका विधान करके इनका अन्तर काल इस हिसाबसे प्राप्त करे । शेष कथन सुगम है। २६८. एकेन्द्रियों में एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, बादर पर्याप्त एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय और सूक्ष्म पर्याप्त एकेन्द्रियोंमें तिर्यञ्चगति चतुष्कके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे अनन्त काल, अङ्गलके असंख्यातवें भागप्रमाण, संख्यात हजार वर्ष, असंख्यात लोकप्रमाण और अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तिर्यञ्चायुके जघन्य स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम शुल्लक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अजघन्य स्थितिबन्धका भङ्ग अनुत्कृष्टके समान है। तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग १. मूलप्रतौ अज० जह० द्विदि० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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