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________________ ४१२ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे भंगो। सेसाणं उक्कस्सभंगो । बादरे तिरिक्वायुग० एइंदियभंगो । मुहुम-बादरपज्जत्ते तिरिक्वायु० जह• हिदि० जह० रणत्थि अंतर। सेसं उक्करसभंगो। अपज्जत्ता० तिरिक्खअपजत्तभंगो । सुहुमे तिरिक्वायु० जह० हिदि० जह० खुद्दाभव० समयू०, उक्क० पलिदो० असंखे० । अज० अणुक्क भंगो। सेसाणं उक्करसभंगो। सव्वाणं मणुसायु० जह० द्विदि. णत्थि अंतर । अज• हिदि० पगदिअंतर । ___२६६.बीइं०-तीइं०-चदुरिं० पजत्तापजत्ता० उक्कस्सभंगो । णवरि तिरिक्वायु० जह• जह० खुद्दाभव० समयू०, उक्क० हिदि । पजते. जह० हिदि० पत्थि अंतर। अज० हिदि० अणुक० भंगो।। २७०. पंचिंदिय०२ खवगपगदीणं तित्थयरस्स जह० हिदि० णत्थि अंतर' । अज० ओघं। णिदापचला-असादा०-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय--दुगु--देवगदि-- उत्कृष्टके समान है। बादरों में तिर्यञ्चायुका भङ्ग एकेन्द्रियोंके समान है। सूक्ष्म जीवोंमें और बादर पर्याप्त जीवोंमें तिर्यञ्चायु के जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर काल नहीं है । तथा शेष भङ्ग उत्कृष्टके समान है । अपर्याप्तकोंमें तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है । सूक्ष्म एकेन्द्रियों में तिर्यञ्चायुके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम क्षुल्लक भवग्रहण प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अजघन्य स्थितिबन्धका भङ्ग अनुत्कृष्टके समान है । तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। इन सबके मनुष्यायके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। तथा अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है। विशेषार्थ-एकेन्द्रियों में तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्र प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके होता है और इनका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है, इसलिए यहाँ उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल कहा है। तथा बादर एकेन्द्रियों में अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण, बादर पर्याप्त एकेन्द्रियों में संख्यात हजार वर्षप्रमाण, सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें असंख्यात लोकप्रमाण और सूक्ष्म पर्याप्तकों में अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है, इसलिए इनमें उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिवन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्त काल प्रमाण कहा है । इन सबके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहर्त है; यह स्पष्ट हो है। शेष कथन स्पष्ट ही है। २६९. द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और इनके पर्याप्त तथा अपर्याप्त जीवोंमें सब प्रकृतियोके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल उत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चायुके जघन्य स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम क्षुल्लक अवग्रहण प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी-अपनी कायस्थितिप्रमाण है। इनके पर्याप्तकोंमें जघन्य स्थितिवन्धका अन्तर काल नहीं है तथा अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर अनुत्कृष्टके समान है। २७०. पञ्चेन्द्रियद्विको क्षपक प्रकृतियोंके और तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य स्थितिवन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल ओघके समान है। निद्रा, प्रचला, असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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