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________________ ३६० महाबंधे द्विदिबंधाहियारे २०२. पुरिसेसु खवगपगदीणं जह० हिदि० जह० उक्क० अंतो० । अज. जह• अंतो०, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । पुणो धुविगाणं जह० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अज• जह० अंतो०, उक्क० कायट्टिदि० । सेसाणं उक्कस्सभंगो । २०३. णवुसगे खवगपगदीणं जह० हिदि. जहएणुकस्सेण अंतो० । अज० हिदि० जह० एग०, उक्क० अणंतकालमसंखे० । पुणो धुविगाणं तिरिक्वगदितिगस्स ओरालि तिरिक्खोघं । सेसाणं उक्कस्सभंगो । णवरि तित्थकर इत्थिवेदभंगो । ___ २०४. अवगदवे० सगपगदीणं जह० अोघं । अज० जह• एग०, उक्क० अंतो० । कोधादि०४ उक्कस्सभंगो । णवरि खवगपगदीणं जह० ओघो।। २०५. मदि०-सुद० धुविगाणं तिरिक्खोघं । णवरि अज० जह• अंतो० । सेसाणं उक्कस्सभंगो । विभंगे उक्कस्सभंगो । णवरि पंचणाणादि सम्मत्ता० संजमामि २०२. पुरुषवेदवाले जीवोंमें क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल सौ सागर पृथक्त्व है। पुनः ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिवन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपनी कायस्थिति प्रमाण है। तथा शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका काल उत्कृष्टके समान है। २०३. नपुंसकवेदवाले जीवोंमें क्षपक प्रकृतियोंके अघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट न अनन्त काल है जो असंख्यात पद्दल परिवर्तन प्रमाण है। पुनः ध्रुववन्धवाली प्रकृतियाँ तिर्यञ्चगतित्रिक और औदारिक शरीर प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका काल सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि तीर्थंकर प्रकृतिका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है। २०४. अपगतवेदवाले जीवोंमें अपनी प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका काल अोधके समान है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। क्रोधादिक चार कषायवाले जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका काल ोधके समान है। विशेषार्थ-अपगतवेदमें बन्धको प्राप्त होनेवाली प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपक श्रेणीमें अन्तर्मुहूर्त काल तक उपलब्ध होता है। प्रोघसे भी यह काल इसी प्रकार प्राप्त होता है। इसीसे यहाँ सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका काल प्रोघके समान कहा है। अप गतवेदमें उपशामकका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इससे यहां अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिवन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। चार कषायोंमें क्षपक प्रतियोंके जघन्य स्थितिबन्धके कालका स्पष्टी करण अपगतवेदके समान ही है । शेष कथन सुगम है। २०५. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनमें अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। विभङ्गशानी जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि पाँच ज्ञानावरणादि प्रकतियों में से सम्यक्त्वके अभिमुख हुए जीवके और संयमके अभिमुख हुए जीवके उद्योतके For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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