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महाबन्ध
भला उसकी उत्पत्ति हो ही कैसे सकती है? गेहूँ आदि के सड़ाने पर उसमें जो मादकता दिखाई देती है, वह उनका नया धर्म नहीं है। किन्तु यह मादकता इन पदार्थों में न्यूनाधिकरूप से सदा विद्यमान रहती है। सड़ाने आदि से मात्र उसका विशेष रूप से आविर्भाव देखा जाता है। एक मनुष्य भोजन करता है, उसे कम आलस्य आता है और दूसरा मनुष्य भोजन करता है, उसे अधिक आलस्य आता है। इसका एक कारण इस मादकता की न्यूनाधिकता भी है, इसलिए मदिरा के दृष्टान्त द्वारा जीव को भूतचतुष्टय का परिणाम मानना उचित नहीं है।
जीव द्रव्य है और उसका स्वतन्त्र अस्तित्व है। इन्द्रियों द्वारा उसका अन्य स्थूल पदार्थों के समान
न होने पर भी उसके अस्तित्व को अस्वीकार करना बुद्धि की विडम्बना मात्र है। लोक में ऐसे अनेक पदार्थ हैं, जिनका इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण न होने पर भी अनुमान प्रमाण के द्वारा उनका अस्तित्व सिद्ध होता है। उदाहरणार्थ, पृथ्वी आदि के आरम्भिक परमाणुओं का चाक्षुष प्रत्यक्ष नहीं होता, पर क्या इतने मात्र से उनका असद्भाव माना जा सकता है? कभी नहीं। इसी प्रकार यद्यपि जीव तत्त्व का इन्द्रियों द्वारा ग्रहण नहीं होता है, तथापि अनुमान आदि के द्वारा उसका अस्तित्व सिद्ध होता है।
जिस प्रकार किसी यन्त्रप्रतिमा की चेष्टाओं को देखकर उसके प्रयोक्ता का अस्तित्व जाना जाता है, उसी प्रकार सम्भाषण, हलन-चलन, श्वासोच्छ्वास का ग्रहण करना और छोड़ना तथा आहार का लेना, आदि क्रियाओं को देखकर ज्ञात होता है कि इस शरीर का प्रयोक्ता कोई अन्य पदार्थ है जो शरीर के प्रत्येक अवयव में व्याप्त होकर रह रहा है।
यह तो हम प्रत्यक्ष में ही देखते हैं कि जीवित शरीर से मृत शरीर में मौलिक अन्तर है। जीवित शरीर में ऐसी किसी वस्तु का वास अवश्य रहता है जो श्वासोच्छ्वास लेता-छोड़ता है, उस द्वारा क्रिया करने में सहायता प्रदान करता है, किसी वस्तु के विस्मृत हो जाने पर उसे याद करता है, इच्छा करता है, इच्छित भोग को स्वीकार करता है, और अनिच्छित भोग का त्याग करता है। स्व-पर का भेद करता है, गणित व रुपया, आना, पाई का हिसाब लगाता है, यश की कामना करता है और विश्व की सुव्यवस्था व आत्मोन्नति के उपाय सोचता है। यह कहना विशेष युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता कि भूत-चतुष्टय के योग्य सम्मिश्रण से चैतन्य तत्त्व की उत्पत्ति होती है। क्योंकि जो शक्ति अलग-अलग पृथिवी आदि में नहीं पायी जाती, वह उनके सम्मिश्रण से नहीं उत्पन्न हो सकती।
हम देखते हैं कि बालक जन्म लेते ही दुग्धपान की इच्छा करता है। माता के स्तन से उसका मुँह लगाने पर वह दूध पीने लगता है। कुछ ऐसे भी बालक देखे गये हैं जो अपने पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुनाते हैं। श्री रतनलालजी ने अपनी 'आत्मरहस्य' नामक पुस्तक में देश-विदेश की ऐसी कई घटनाएँ निबद्ध की हैं। एक घटना बरेली की है। बात सन् १६२६ की है। केकयनन्दन वकील के यहाँ एक पुत्र उत्पन्न हुआ। जब वह बालक पाँच वर्ष का हुआ और बोलना सीख गया, तो वह अपने पूर्वजन्म की बातें कहने लगा कि पूर्व जन्म में वह बनारस निवासी बबुआ पाण्डे का पुत्र था। उस बालक के पिताश्री केकयनन्दन कई मित्रों के साथ उस बालक को बनारस ले गये और बालक के बतलाये हुए स्थान पर गये। उस समय बनारस के जिलाधीश श्री बी.एन. मेहता भी उपस्थित थे। बालक बबुआ महाराज तथा उस मोहल्ले के एकत्रित सजनों को उनके नाम ले लेकर पुकारने लगा और उनसे मिलने की उत्सुकता प्रकट करने लगा। उसने अपने पूर्व जन्म के घर तथा बहुत-सी वस्तुओं को पहिचान लिया और अनेक प्रश्न पूछने लगा कि अमुक-अमुक वस्तुएँ कहाँ हैं और कैसी हैं? उस बालक का बतलाया हुआ पूर्व जन्म का वृत्तान्त बिलकुल सच निकला।
भूत-प्रेतों की कथाएँ भी अक्सर लोग सुनाया करते हैं। कुछ पश्चिमीय विद्वानों ने इनका सप्रमाण संकलन भी किया है। भारतीय समाचारपत्रों में भी ये प्रकाशित होती रहती हैं। इनसे सम्बद्ध कई घटनाएँ ऐसी होती हैं जिन्हें असत्य नहीं माना जा सकता। अक्सर ये प्रेत वहीं पर क्रियाशील दिखाई देते हैं जहाँ पर इनका पूर्व जन्म का किसी-न-किसी प्रकार का सम्बन्ध होता है।
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