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________________ उक्कस्सट्ठिदिबंधश्रतरकालपरूवणा ३८९ २४६. विभंगे पंचणा०-णवदंसणा-सादासा-मिच्छ-सोलसक०-णवणोक.. तिरिक्खगदि-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा-क-छस्संठाण-पोरालि अंगो -छस्संघ--- वएण०४-तिरिक्वाणु०-अगुरु०४--उज्जो०-दोविहा०-तस०४-धिरादिलक-णिमि०पीचा०-पंचंत० उक्क० हिदि० जह• अंतो०, उक्क तेत्तीस सा• दस० । अणु जह० एग०, उक्क० अंतो० । णिरय-देवायु उक्क० अणु० हिदि० णत्थि अंतरं । तिरिक्ख-मणुसायु० उक्क हिदि. णत्थि अंतरं । अणु० जद्द अंतो, उक्क. छम्मासं देसू०। वेउब्वियक-तिरिणजादि-सुहुम-अपज्जत-साधारण उक्क० णत्थि अंतरं । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । मणुसगदिदुगं उच्चा० उक्क० हिदि० जह० अंतो०, उक्क० बावीसं सा० देसू० । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । एइंदि०-आदाव-थावर० उक्क० जह० अंतो०, उक्क. बेसाग० सादि० । अणु० जह• एग०, उक्क० अंतो० ! २४६. विभङ्गशानमें पाँच ज्ञानाचरण, नौ दर्शनावरण, साता वेदनीय, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नवकषाय, तिर्यश्चगति, पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, छह संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, वर्णचतुष्क तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, उद्योत, दो विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर, अन्तर्मुहर्त है । नरकायु और देवायके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना है। वैक्रियिक छह, तीन जाति, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। मनुष्यगति द्विक और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम बाईस सागर है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । एकेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावरके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-नरकमें विभगवानका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है । इसीसे यहाँ पाँच शानावरण आदि ८७ प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम. तेतीस सागर कहा है. । यहाँ प्रारम्भ और अन्तमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कराकर यह अन्तर काल ले आवे । वैक्रियिक छह आदि बारह प्रकृतियोंका बन्ध देव और नारकियोंके नहीं होता मनुष्य और तिर्यश्चोंके होता है। फिर भी, इनके विभङ्गशानके काल में इन प्रकृतियों के दो बार उत्कृष्ट स्थितिबन्धके योग्य परिणाम नहीं होते, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। नरकमें मनुष्यगतिद्विक और उच्चगोत्रका विभङ्गशानमें बन्ध छठे नरकतक ही होता है। इसीसे यहाँ इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम बाईस सागर कहा है । एकेन्द्रिय जाति आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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