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________________ उक्क सठ्ठिदिबंध कालपरूवणा १६७. विभंगे ० पंचरणा० एवदंसणा०-मिच्छत्त-सोलसक० -भय-दुगु० - तिरिखग ० - पंचिंदि० ओरालि० - तेजा ० क ० --ओरालि अंगो० - वरण ०४ - तिरिक्खाणु० - अगुरु०४-तस०४-रिणमि० णीचा० - पंचंत० उक० ओघं । अणु जह० एग०, उक्क० तेत्तीस सा० सू० । मणुसग० - मरणुसार ० उक० श्रघं । अणु० जह० एग०, उक० एकतीसं सा० सू० । सेसाणं उक्क० अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । १६८. आभि० - सुद० -प्रोधि० पंचणा० - दंसणा ० चदुसंज० - पुरिस०-भयदुगु ० - पंचिंदि० - तेजा० क० - समचदु० वरण०४ - अगुरु ०४ - पसत्यवि० --तस० ४- सुभग-सुस्सर - आदे० - णिमिण-उच्चा० - पंचंत० उक्क० जह० तो ० । ० जह० अंतो०, उक्क० छावहिसागरो० सादि० । पच्चक्खाणा ०४ उक्क० जह० उक्क० अंतो० । ० जह० अंतो०, उक० बादालसागरो० सादि० | सादावे ० -हस्स - रदि- आहार० अन्तर्मुहूर्त काल तक पञ्चेन्द्रिय जाति आदि आठ प्रकृतियोंका बन्ध कर रहा है और मरकर तेतीस सागरकी युके साथ नरकमें उत्पन्न होनेपर वहाँ भी आयुके अन्तिम समय तक इनका निरन्तर बन्ध करता रहता है, उसकी अपेक्षा उक्त दोनों अज्ञानोंमें इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है । शेष कथन सुगम है । १६७. विभङ्गशान में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रियजाति, श्रीदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, दारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल के समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है | मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघ के समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम इकतीस सागर है । तथा शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ - विभङ्गज्ञानका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है । इतने काल तक इस ज्ञानमें पाँच ज्ञानावरण आदि ५९ प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध होता रहता है, इसलिए इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। किन्तु मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीका सातवें नरक में मिथ्यादृष्टिके बन्ध नहीं होता, इसलिए इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल नौवें ग्रैवेयकमें विभङ्गज्ञानके उत्कृष्ट कालकी अपेक्षा कुछ कम इकतीस सागर कहा है । शेष कथन सुगम है । १६८.आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है 1 अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर है । प्रत्याख्यानावरण चतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक व्यालीस Jain Education International ३३३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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