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________________ उक्कस्सटिदिबंधकालपरूवणा ३३५ १६६. मणपज्जव० पंचणा-छदसणा०-चदुसंज-पुरिस०-भय-दुगुं -देवगदिपंचिंदिय०-वेउव्विय-तेजा-का-समचदु०-[ वेउवि० ] अंगो०-वएण०४-देवाणु०अगुरु०४-पसत्थवि०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदे०-णिमि०-तित्थय०-उच्चा-पंचंत. उक्क जह० उक्क अंतो० । अणु० जह• एग०, उक्क० पुव्बकोडी देसू० । सादावे०हस्स-रदि-आहार०-आहार अंगो-थिर-सुभ-जस० उक० अणु० ओघं । असादा०अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस० उक्क० जह० उक्क० अंतो० । अणु० जह• एग०, उक्क० अंतो० । एवं संजद-सामाइ०-छेदो०-परिहार। वरि परिहारे अणु० जह० अंतो० । मुहुमसंपरा० अवगदवेदभंगो । १६९. मनःपर्ययशानमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, क्रियिक शरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, प्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर, उञ्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि है। सातावेदनीय, हास्य, रति, आहारकशरीर, आहारक आङ्गोपाङ्ग, स्थिर, शुभ और यश-कीर्तिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल अोधके समान है। असाता वेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयश-कीर्ति प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार संयत, सामायिक संयत, छेदोपस्थापनासंयत और परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि परिहारविशुद्धिसंयतमें अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंके अपनी सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल अपगतवेदी जीवोंके समान है। विशेषार्थ-जो मनःपर्ययशानी प्रमत्तसंयत जीव उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है, असंयमके अभिमुख है, उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कर रहा है और अन्तिम उत्कृष्ट स्थितिबन्धमें अवस्थित है, उसके पाँच ज्ञानावरण आदि प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। यतः उत्कृष्ट स्थितिबन्धका यह काल अन्तर्मुहूर्त है, अतः इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तहर्त कहा है। जो मनःपर्ययज्ञानी जीव उपशमश्रेणिसे उतरते समय अपने-अपने स्थानमें एक समय तक पाँच ज्ञानावरण आदि प्रकृतियोका बन्ध करता है और दूसरे समयमें मर कर देव हो जाता है, उस मनापर्ययज्ञानी जीवके उक्त प्रकृतियोंके स्थितिबन्धका एक समय काल प्राप्त होता है। इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय कहा है। तथा मनःपर्ययज्ञानका उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि होनेके कारण इसमें उक्त प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटिप्रमाण कहा है। असाता वेदनीय आदि तीसरे दण्डकमें कही गई छह प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी पाँच झानावरण श्रादिके समान है, इसलिए इसके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। तथा जिस मनःपर्ययज्ञानीने इनकी बन्धव्युच्छित्ति कर दी और पुनः प्रमत्तसंयत होकर इनका एक समय तक बन्ध किया और दूसरे समयमें मर कर देव हो गया,उसके इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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