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________________ जहरणहिदिवंधअंतरकालपरूवणा ४०५ २६२. आदेसेण णेरइएमु पंचणा०-छदसणा०-बारसक०-भय-दुगु-पंचिंदि०पोरालिय०-तेजा-क-ओरालि० अंगो०-वएण०४-अगुरु०४-तस०४-णिमि०-पंचंत० जह० अज० हिदि० णत्थि अंतर । थीणगिद्धितियं मिच्छत्तं अणंताणुबंधि०४ जह० हिदि. णत्थि अंतर । अज० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० देसू० । इत्थि०णवूस०-दोगदि--पंचसंठा०--पंचसंघ०-दोआणु०--उज्जो०--अप्पसत्थ०-दूभग-दुस्सरअण्णादे०-णीचुच्चा० जह• हिदि० पत्थि अंतरं । अज० जह० एग०, उक्क० तेतीसं सा० देस ! सादासा०-पुग्गि-हस्स-रदि-अरदि-सोग-समचदु०-वज्जरिस०-पसत्थ०थिराथिर-मासुभ सुभग सुमार-आ जम अजस०] जह' हिदि० पत्थि अंतर। अज० जह० एग०, उक्क. अंतो० । दो आयु० जह• हिदि० णत्थि अंतर । अन० द्विदि० जह० अंतो०, उक० छम्मासं देसू० । तित्थय० जह० ट्ठिदि० जह० अंतो०, उक्क० तिगिण सागरो० सादिक । अन. जह० एग०, उक्क० अंतो०। एवं पढ अन्तर असंख्यात लोकप्रमागा कहा है और मनुष्य सम्यग्दृष्टिके इनका बन्ध नहीं होता, इस लिए इनके अजघन्य स्थितिवन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य कहा है। शेष अन्तर कालका स्पष्टीकरण वैक्रियिकषटकके समान है। संयमका उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है, इसलिए आहारकद्विकके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कहा है। तथा उच्चगोत्रका अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके बन्धका नहीं होता, इसलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है। २६२. आदेशसे नारकियोंमें पाँन ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचनुष्क, निर्माण और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चार प्रकृतियोंके जघन्य स्थितियन्धका अन्तर काल नहीं है । अजघन्य स्थिति बन्धका जघन्य अन्तर प्रान्तमगर्न है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, दो गति, पांच संस्थान, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुभंग. दुस्वर, कानादय. नीचगोत्र और उञ्चगोत्रके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अजधन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है ! सानादनीय, असातावेदनीय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, समचतुरस्रस्थान, बसनामंहनन, प्रशस्तविहायोगति, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर और प्रादेय, यशःकीर्ति और अयशाकीर्ति प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजयन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहर्त है। दो आयुओंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर स तीन सागर है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्त १. जह० अज• जहरू हिदि इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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