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गिरिनगर की चन्द्रगुफा
-डॉ. हीरालाल जैन
'षट्खण्डागम' की टीका 'धवला' के रचयिता वीरसेनाचार्य ने कहा है कि समस्त सिद्धान्त के एक-देशज्ञाता धरसेनाचार्य थे जो सोरठ देश के गिरिनगर की चन्द्रगुफा में ध्यान करते थे (षट्खण्डागम, भाग १, पृ. ६७)। उन्हें सिद्धान्त के संरक्षण की चिन्ता हुई। अतः महिमानगरी के तत्कालवर्ती मुनिसम्मेलन को पत्र लिखकर उन्होंने वहाँ से दो मुनियों को बुलाया और उन्हें सिद्धान्त सिखाया। ये ही दो मुनि पुष्पदन्त और भूतबलि नामों से प्रसिद्ध हुए और इन्होंने वह समस्त सिद्धान्त षट्खण्डागम के सूत्र रूप में लिपि-बद्ध किया।
इस उल्लेख से यह तो सुस्पष्ट हो जाता है कि धरसेनाचार्य सौराष्ट्र (काठियावाड़-गुजरात) के निवासी थे और गिरिनगर में रहते थे। यह गिरिनगर आधुनिक गिरनार है जो प्राचीन काल में सौराष्ट्र की राजधानी था। यहाँ मौर्य क्षत्रप और गुप्तकाल के सुप्रसिद्ध शिलालेख पाये गये हैं। बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ ने भी यहाँ तपस्या की थी, जिससे यह स्थान जैनियों का एक बड़ा तीर्थक्षेत्र है। आधुनिक काल में नगर का नाम तो झूनागढ़ हो गया है और प्राचीन नाम गिरनार उसी समीपवर्ती पहाड़ी का रख दिया गया जो पहले ऊर्जयन्त पर्वत के नाम से प्रसिद्ध थी। अब प्रश्न यह है कि क्या इस इतिहास-प्रसिद्ध नगर में उस चन्द्रगुफा का पता लग सकता है जहाँ धरसेनाचार्य ध्यान करते थे, और जहाँ उनके श्रुतज्ञान का पारायण पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्यों को कराया गया था।
खोज करने से पता चलता है कि झूनागढ़ में बहुत-सी प्राचीन गुफाएँ हैं। एक गुफा-समूह नगर के पूर्वीय भाग में आधुनिक 'बाबा प्यारा मठ' के समीप है। इन गुफाओं का अध्ययन और वर्णन बर्जेज साहब ने किया है। उन्हें इन गुफाओं में ईसवी पूर्व पहली-दूसरी शताब्दी तक के चिह मिले हैं। ये गुफाएँ तीन पंक्तियों में स्थित हैं। प्रथम गुफा-पंक्ति उत्तर की ओर दक्षिणाभिमुख है। इसी के पूर्व भाग से दूसरी गुफा-पंक्ति प्रारम्भ होकर दक्षिण की ओर गयी है। यहाँ की चैत्य-गुफा की छत अति प्राचीन प्रणाली की समतल है और उसके आजू-बाजू उत्तर और पूर्व कोनों में अन्य सीधी-सादी गुफाएँ हैं। इस गुफा-पंक्ति के पीछे से तीसरी गुफा-पंक्ति प्रारम्भ होकर पश्चिमोत्तर की ओर फैली है। यहाँ की छठी गुफा (F) के पार्श्व भाग में अर्धचन्द्राकार विविक्त स्थान (२PSE) है; जैसा कि ईसवी पूर्व प्रथम-द्वितीय शताब्दी की भाजा, कार्ली, बेदसा व नासिक की बौद्ध गुफाओं में पाया जाता है। अन्य गुफाएँ बहुतायत से सम चौकोन या आयत चौकोन हैं और उनमें कोई मूर्तियाँ व सजावट नहीं पाई जाती। कुछ बड़ी-बड़ी शालाएँ भी हैं, जिनमें बरामदें भी हैं। ये सब गुफाएँ अत्यन्त प्राचीन वास्तुकला के अध्ययन के लिए बहुत उपयोगी हैं। (Burgess: Antiquities of Kutchh and Kathiawar, 1874-75, P. 139 ff.) ये सब गुफाएँ उनके निर्माण-काल की अपेक्षा मुख्यतः दो भागों में विभक्त की जा सकती हैं-एक तो वे चैत्यगुफाएँ और तत्सम्बन्धी सादी कोठरियाँ जो उन्हें बौद्धों की प्रतीत होती हैं और जिनका काल ईसवी-पूर्व दूसरी शताब्दी अनुमान किया जा सकता है; जब कि प्रथम वार बौद्ध भिक्षु गुजरात में पहुँचे। दूसरे भाग में वे गुफाएँ व शालागृह हैं जो प्रथम भाग की गुफाओं से कुछ उन्नत शैली की बनी हुई हैं, तथा जिनमें जैन चिह्न पाये जाते हैं। ये ईसवी की दूसरी शताब्दी अर्थात् क्षत्रप राजाओं के काल की अनुमान की जाती हैं। यहाँ हमारे लिए उन्हीं दूसरे भाग की गुफाओं की ओर ध्यान देना है जिनमें जैन चिह्न पाये जाते हैं।
इनमें की एक गुफा (K) में स्वस्तिक, भद्रासन, नन्दीपद, मीनयुगल और कलश के चिह्न खुदे हुए हैं। ऐसे ही चिह्न मथुरा के जैनस्तूप की खुदाई से प्राप्त आयागपट्टों पर पाये गये हैं। (Smith: Jain Stupa (Arch. Survey of India xx, Pt.XI) यही नहीं, वहाँ से एक शिलालेख भी प्राप्त हुआ है, जिसमें क्षत्रप
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