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________________ सम्पादकीय १३ इनका पाँच शरीरों में अन्तर्भाव हो जाता है। आदर्श प्रति में 'चदुसंघाद' के स्थान में 'चदुसंघडण' पाठ उपलब्ध होता है जो शुद्ध है। कारण कि मध्य के चार संहननों का मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि के बन्धे होता है और यहाँ इन्हीं प्रकृतियों के स्वामित्व का निर्देश किया है। क्रमांक १७ में भी इसी प्रकार का स्खलन देखने को मिलता है। इसमें आदर्श प्रति में 'तेजाक०' के बाद 'समचदु.' पाठ स्खलित है। इसके साथ दोनों प्रतियों में 'पसत्थविहायगदि' के अनन्तर 'तस०-बादर-पज्जत्त-पत्तेय' इतना पाठ और होना चाहिए। जिसका दोनों प्रतियों में अभाव दिखाई देता है। अन्य पाठों की भी यही स्थिति है। पि' के अर्थ में प्राकत में 'वि' और 'पि' इन दोनों अव्यय पदों का प्रयोग होता है। क्रमांक ६ में मुद्रित प्रति में 'बंधोपि' पाठ मुद्रित किया गया है। जब कि आदर्श प्रति में यह 'बंधो वि' उपलब्ध होता है। व्याकरण की दृष्टि से यहाँ आदर्श प्रति का पाठ संगत प्रतीत होता है। ४. मुद्रित प्रति में प्रायः सर्वत्र 'को बंधको, को अबंधको' इत्यादि रूप से पाठ उपलब्ध होता है। कहीं-कहीं 'णारक' ऐसा पाठ भी उपलब्ध होता है। देखो क्रमांक १५, १६, १७ व २१। प्राकृत व्याकरण के अनुसार ऐसे प्रयोगों में तृतीय अक्षर होने का नियम है। हमने इस दृष्टि से आदर्श प्रति के भी पाठान्तर दिये हैं। उनके देखने से विदित होता है कि आदर्श प्रति में ऐसा व्यत्यय नहीं दिखाई देता है। ५. प्राचीन कानडी लिपि में द और ध प्रायः एक से लिखे जाते हैं। तथा ध और थ में भी बहुत ही कम अन्तर होता है। हमने यहाँ एक ऐसा पाठान्तर भी दिया है जिससे इस बात का पता लगता है कि पढ़ने के भ्रम के कारण ही यह पाठ दो प्रतियों में दो रूप से निबद्ध हुआ है; जब कि मूल पाठ इन दोनों पाठों से भिन्न होना चाहिए। देखें क्रमांक १८ | आदर्श प्रति में यह पाठ ‘दामे' उपलब्ध होता है और मुद्रित प्रति में 'छामे'। किन्तु मूल प्रति में इन दोनों पाठों से भिन्न 'थामे' पाठ होना चाहिए। 'खुद्दाबंध' में भी यह पाठ इसी रूप में उपलब्ध होता है। इस प्रकार दोनों प्रतियों में और भी स्खलन उपलब्ध होते हैं। यहाँ हमने उनका परिचय कराने की दृष्टि से कुछ का ही उल्लेख किया है। पाठ संशोधन की विशेषताएँ जैसा कि पूर्व में हम दो प्रतियों के आधार से प्रकृतिबन्ध में विविध स्खलनों की चर्चा कर आये हैं; उस तरह के स्खलन हमें प्रस्तुत भाग में भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हुए हैं। इनको कई भागों में विभक्त किया जा सकता है १. ऐसे पाठ जो मूल में स्खलित हैं या जो ताड़पत्र के गल जाने से नष्ट हो गये हैं, उन्हें अर्थ और प्रकरण की दृष्टि से विचार कर [ ] इस प्रकार के कोष्ठक के भीतर दिया गया है। उदाहरण के लिए देखें पृष्ठ २१, २३, २८, २९, ३०, ४५, ४८, ६८, ७४, ८२, १०४, १२८, १४२, १६६ और २०८ आदि। तथा ताड़पत्र के गल जाने से स्खलित हुए पाठों के उदाहरण के लिए देखो पृष्ठ १५, ३१, ३, २०८ आदि।। २. ऐसे पाठ जो मूल में प्रकरण और अर्थ की दृष्टि से असंगत प्रतीत हुए, उन्हें उसी पृष्ठ में टिप्पणी में दिखाकर मूल में संशोधन कर दिया गया है। पर ऐसा वहीं किया गया है जहाँ विश्वस्त आधारों से संशोधित पाठ का निश्चय किया जा सका है। इसके लिए देखें पृष्ठ १६, ३१, ४४, ४५, ४६, ५२ और ५८ आदि। ३. एक दो ऐसे भी पाठ उपलब्ध हुए हैं जो या तो अव्यवस्थित ढंग से लिपिबद्ध किए गये हैं या ताड़पत्रीय प्रति में ही उनके क्रम में दोष है। ऐसा एक पाठ 'महाबन्ध प्रकृतिबन्ध' में भी उपलब्ध होता है। पं. सुमेरुचन्द्र जी दिवाकर के पास जो प्रति है, उस आधार से मुद्रित प्रति में उनके द्वारा उस पाठ की स्थिति इस प्रकार निर्दिष्ट की गयी जान पड़ती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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