SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महाबंधे टिदिबंधाहियारे या आवाधा असं गु० । उक्क. आबाधा विसे । णाणापदेसगु० असं गु० । एयपदेसगु० असं० गु० । एयं आवाधाखंडयं असं० गु० । हिदिवंधट्ठाणाणि असं०गु० । जह• हिदि. असं॰ गु० । उक्क० हिदि विसे । २२. अवससाणं बारसरणं जीवसमासाणं आयुगस्स सव्वत्थोवा जहरिणया आबाधा । जह• हिदिवं० संखेज्जगुं० । आवाधाट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि । उक्क० आवाधा विसेसा । हिदिव० संखेज्जगुणाणि । उक्क हिदि० विसेसा । एवमप्पाबहुगं समत्तं चउवीस-अणिोगदारपरूवणा २३. एदेण अट्ठपदेण तत्थ इमाणि चउवीसमणियोगदाराणि णादव्वाणि भवंति । तं जहा, अद्धाच्छेदो सव्वबंधो कोसबबंधो उक्क० अणुक्क० जह• अजह सादि० अणादि० धुवबं० अर्धवबं० एवं याव अप्पावहुगे त्ति । भुजगारबंधो पदणिक्खेत्रो वडिबंधो अज्झवसाणसमुदाहारे जीवसमुदाहारे त्ति । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। इससे नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं। इनसे एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं। इससे एक आबाधाकाण्डक असंख्यातगुणा है। इससे स्थितिबन्धस्थान असंख्यातगुणे हैं। इससे जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। विशेषार्थ-इन जीवोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक सागरके भीतर होता है और श्राबाधा, श्राबाधाकाण्डक आदि उसी हिसाबसे होते हैं। यही कारण है कि इनके सात कौके सब पदोंका अल्पबहुत्व उक्त प्रमाणसे होता है । २२. अवशेष रहे बारह जीवसमासोंके आयुकर्मकी जघन्य आबाधा सबसे स्तोक है। इससे जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे आवाधास्थान संख्यातगुणे हैं। इनसे उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। इससे स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे उत्कृष्ट स्थिति विशेष अधिक है। विशेषार्थ-यहाँ अल्पबहुत्वमें आवाधाकाण्डक, नानाप्रदेशद्विगुणहानिस्थानान्तर, एकप्रदेशद्विगणहानिस्थानान्तर और एक आबाधाकाण्डक परिगणित नहीं किये गये हैं। कारण कि इन बारह जीवसमासोंमें आयुकर्मका जितना स्थितिबन्ध होता है,वह इतना अल्प है, जिससे उसमें ये पद सम्भव नहीं हैं। शेष कथन सुगम है। इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। चौबीस अनुयोगद्वारप्ररूपणा २३. इस अर्थपदके अनुसार यहाँ ये चौबीस अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं। यथाश्रद्धाच्छेद, सर्वबन्ध, नोसर्वबन्ध, उत्कृष्टबन्ध, अनुत्कृष्टबन्ध, जघन्यबन्ध, अजघन्यबन्ध, सादिबन्ध, अनादिबन्ध, ध्रुववन्ध और अध्रुवबन्धसे लेकर अल्पबहुत्व तक । तथा भुजगारबन्ध, पदनिक्षेप, बृद्धिबन्ध, अध्यवसानसमुदाहार और जीवसमुदाहार ।। विशेषार्थ-अध्रुवबन्धसे लेकर अल्पबहुत्वतक ऐसा सामान्य निर्देश करके शेष बारह अनुयोगद्वार गिनाये नहीं है। वे ये है-स्वामित्व, बन्धकाल, बन्धान्तर, बन्ध सन्निकर्ष, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy