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________________ २१० महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ट्ठाणाणि असंखेज्जा लोगा। तदियाए हिदीए हिदिबंधज्झवसाणहाणाणि असंखेज्जा लोगा। एवं असंखेज्जा लोगा असंखेज्जा लोगा याव उक्कस्सिया हिदि त्ति । एवं सत्तएणं कम्माणं । एवं याव अणाहारग त्ति । णवरि अवगद०-सुहुमसं० एगेगपरिणद्धाणं । एवं पमाणाणुगमो समत्तो। ४१६. सेढिपरूवणा दुविधा--अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा चेदि । अणंतरोवणिधाए णाणावरणीयस्स जहरिणयाए हिदिबंधझवसाणहाणाणि थोवाणि । ण विदियाए हिदीए हिदिबंधज्झवसाणहाणाणि विसेसाधियाणि । तदियाए हिदीए हिदिबंधझवसाणहाणाणि विसे । एवं विसे० विसेसाधियाणि याव उक्कस्सियाए हिदि त्ति । एवं छएणं कम्माणं । आयुगस्स जहरिणयाए हिदीए डिदिबंधझवसाणहाणाणि सव्वत्थोवाणि । विदियाए हिदीए हिदिबंधज्झवसाणहाणाणि असंखेज्जगुणाणि । तदियाए हिदीए हिदिबंधझवसाणहाणाणि असंखेज्जगुणाणि । एवं असंखेज्जगुणाणि असंखेज्जगुणाणि याव उक्कस्सिया हिदि त्ति । एवं याव अणाहारग त्ति णेदव्वं ।। ४२०. परंपरोवणिधाए णाणावरणीयस्स जहएिणयाए हिदीए हिदिबंधझव स्थान असंख्यात लोकप्रमाण हैं। तीसरी स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान असंख्यात लोकप्रमाण हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होने तक प्रत्येक स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान. असंख्यातलोक असंख्यातलोक प्रमाण जानना चाहिए । इसी प्रकार सात कर्मोंके जानना चाहिए । इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक कथन करना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपगतवेदी और सूक्ष्मसाम्पराय संयत जीवोंके एक-एक परिणाम हैं। इस प्रकार प्रमाणानुगम समाप्त हुआ। श्रेणिप्ररूपणा ४१९. श्रेणिप्ररूपणा दो प्रकारकी है--अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा। अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा शानावरणकी जघन्य स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान सबसे थोड़े हैं। इनसे दूसरी स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान विशेष अधिक हैं। इनसे तीसरी स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान विशेष अधिक हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होनेतक प्रत्येक स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान विशेष अधिक विशेष अधिक हैं। इसी प्रकार छह कर्मोंके जानना चाहिए । आयुकर्मको जघन्य स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान सबसे स्तोक है । इनसे दूसरी स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान असंख्यात गुणे हैं । इनसे तीसरी स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान असंख्यात गुणे हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होनेतक प्रत्येक स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान असंख्यातगुणे असंख्यात गुणे हैं । इस प्रकार अनाहारक मार्गणातक कथन करना चाहिए। इस प्रकार अनन्तरोपनिया समाप्त हुई। ४२०. परम्परोपनिधाकी अपेक्षा शातावरणकी अधन्य स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसाय १. पञ्चसं० बन्धनक० गा० १०५ । २. मूलप्रतौ-हाणाणि असंखेज्जगुणाणि । विदियाए इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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