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________________ जहरणअंतरपरूवा १२१. कायजोगि० सत्तएणं क० ओघं। ओरालियका. सत्तएणं क. मणजोगिभंगो । आयु० उक्कस्सभंगो। ओरालियमिस्स० सत्तएणं क. उक्कस्सभंगो । आयु. मणुसअपज्जत्तभंगो । वेउन्वियका० सत्तएणं क. जह• णत्थि अंतरं । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । आयु० जह• अजह• पत्थि अंतरं। एवं आहारकायजो० । वेव्वियमि० सत्तएणं कल आहारमि० अट्ठएणं क. कम्मइ०-अणाहार० सत्तएणं का जह० अजह० णत्थि अंतरं । १२२. इत्थि -पुरिस-णवुस० सत्तएणं क. जह• अजह० णत्थि अतरं । आयु० जह० रणत्थि अंतरं । अज० अणुक्कस्सभंगो । णवरि गर्बुस० आयु० जह० जह० खुद्दाभव० समयूणं, उक्कस्सं सागरोवमसदपुधत्तं । अवगद० सत्तएणं० क० णत्थि अंतरं । अज० जह० उक्क० अंतो० । मोहनीय कर्मके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त घटित हो जाता है। शेष कथन सुगम है।। १२१. काययोगी जीवों में सात कर्मोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर श्रोधके समान है। औदारिक काययोगी जीवोंमें सात कौके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल मनोयोगियों के समान है। तथा आयुकर्मका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। औदारिकमिश्रकाययोगी जीवों में सात कौंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। तथा आयुकर्मका भङ्ग मनुष्य-अपर्याप्तकोंके समान है। वैक्रियिक काययोगी जीवों में सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। आयुकर्मके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार आहारककाययोगी जीवोंके जानना चाहिए। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवों में सात कर्मोंके और आहारकमिश्रकाययोगी जीवों में आठ कर्मोके तथा कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें सात कमौके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अम्तरकाल नहीं है। १२२. स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी जीवों में सात कौके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। तथा अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल अनुत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदमें आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तरकाल एक समय कम नुल्लक भवग्रहण प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तरकाल सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण है। अपगतवेदमें सात कर्मोके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है तथा अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-तीनों वेदोंमें सात कौंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिए इनमें सात कौके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। नपुंसकवेदमें आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण बतलानेका कारण यह है कि इतने कालतक यह जीव संशी पञ्चेन्द्रिय पर्यायमें रह सकता है जिससे इसके योग्य आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध न हो। इसके बाद यह एकेन्द्रिय पर्यायमें जाकर यथायोग्य काल आनेपर जघन्य श्रायुका बन्ध करता है। शेष कथन स्पष्ट ही है। १. मलप्रतौ श्रोघं एइंदियभंगो। ओरालियका इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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