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________________ वहिबंधे अंतरं १८६ जह० एग०, उक्क० अणंतकालमसंखेजपुग्ग० । असंखेजगुणवडि० जह० एग०, उक्क० अद्धपोग्गलप० । असंखेज्जगुणहाणि-अवत्तव्वबंधंतरं जह• अंतो०, उक्क० अद्धपोग्गल । आयु० भुजगारभंगो । एवं ओघभंगो अचक्खु०-भवसि । ३७१. आदेसेण णेरइएमु सत्तएणं क० तिएिणवडि-हाणि. जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवहि जह• एग०, उक्क० बेसम० । एवं सव्वणिरय-मणुसअपज्जत-सव्वदेव० एइंदिय-विगलिंदियपंचकायाणं सगपदा० वेउव्विय-विभंग०परिहार०-संजदासंजद-तेउ०-पम्मले०-वेदगस०-सासण-सम्माभिः । ३७२. तिरिक्खेसु सत्तएणं क. तिएिणवडि-हाणि. ओघं । अवढि जह० एग, उक्क. चत्तारिसमः । एवं मदि०-सुद०-असंज०-अब्भवसि०-मिच्छादि । पंचिंदियतिरिक्ख०३ सत्तएणं क. दोवड्डि-हाणि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । संखेज्जगुणवडि-हाणिबंधंतरं जह० एग०, उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं । अवहि० जह० एग०, उक्क तिरिण सम० । पंचिंदियतिरिक्व-अपज्ज. सत्तएणं क. तिएिण कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन है। असंख्यातगुणहानिबन्ध और अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन है। आयुकर्मके दोनों पदोंका अन्तर भुजगारबन्धके समान है। इसी प्रकार ओघके समान अचक्षुदर्शनी और भव्य जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-जिन जीवोंके अन्तर्मुहूर्त काल तक अवस्थितबन्ध होता है,उनके असंख्यातभागहानि और असंख्यातभागवृद्धिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध होता है। जो जीव अन्तर्मुहूर्त काल तक उपशान्त मोहमें रहकर गिरते हैं, उनके अवस्थितबन्धका अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट अन्तरकाल उपलब्ध होता है। संख्यातभागवृद्धिबन्ध और संख्यातगुणवृद्धिबन्ध तथा संख्यातभागहानिबन्ध और संख्यातगुणहानिबन्ध,ये एकेन्द्रियके नहीं होते, इसी बातको ध्यानमें रखकर इनका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल कहा है और असंख्यातगुणहानिबन्ध तथा असंख्यातगुणवृद्धिबन्ध यतः श्रेणिमें ही होते है, अतः इनका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है। ३७१. आदेशसे नारकियोंमें सात कोके तीन वृद्धि और तीन हानि बन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। इसी प्रकार सब नारकी, मनुष्य अपर्याप्त और सब देवोंके तथा एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पाँच स्थावरकाय जीवोंके अपने-अपने पदोंका तथा वैक्रियिककाययोगी, विभङ्गशानी, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, वेदगसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। ३७२. तिर्यञ्चोंमें सात कर्मोके तीन वृद्धि और तीन हानिबन्धका अन्तर श्रोधके समान है। अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है। इसी प्रकार मत्यज्ञानी, श्रुताशानी, असंयत, अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें सात कर्मोके दो वृद्धि और दो होनिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय १. भंगो। सम्वद्धा एवं इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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