Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
इस पूर्वोक्त कथनसे सम्यग्दर्शनको हेतुरहितनेपका भी खण्डन कर दिया गया, समझ लेना चाहिए। जो वादी सम्यग्दर्शनको नित्य मान रहा था, वह वादी सम्यग्दर्शनको उत्पादक हेतुओंसे रहित मानता है जब कि वैशेषिकोंके माने गये ध्वंसके समान हम मोक्षको और क्षायिक सम्यग्दर्शनको सादि और अनंत मानते हैं, ऐसी दशामें सम्यग्दर्शनको हेतुरहित सत्पदार्थ नहीं मानना चाहिए, जो सत् होकर अकारणवान् होगा, वह नित्य होगा, किंतु जो कारणवान् है वह नित्य नहीं । और उस सम्यग्दर्शनका कारण नित्य ही हैं यह कहना भी युक्तियोंसे शून्य है। क्योंकि ऐसा माननेपर मिथ्यादर्शनका आत्मामें सद्भाव न रह सकेगा यह अनिष्ट प्रसंग आता है। जब कि उस मिथ्यादर्शनके कारण कहे गये मिथ्यात्व कर्मका विरोधी हो रहे सम्यग्दर्शनके उपशम आदि कारण सर्वदा आत्मामें विद्यमान हैं तो ऐसी दशामें मिथ्यादर्शनके उत्पन्न होनेका अवसर ही नहीं प्राप्त होगा, जैसे कि अग्निके होनेपर शीत-स्पर्शका सम्भव नहीं है । अतः विद्यमान माने गये मिथ्यादर्शनके सद्भावकी सिध्दि न हो सकनेके कारण सम्यग्दर्शन नित्य हेतुवाला नहीं है । जिससे कि वह सम्यग्दर्शन नित्य हो सके, अर्थात् मिथ्यादर्शनका सद्भाव भी संसारी जीवोंमें पाया जाता है । इससे सिध्द है कि वह सम्यग्दर्शन नित्य नहीं है । और सम्यग्दर्शनके कारण भी नित्य नहीं हैं । तथा कभी कभी हेतुओंसे उत्पन्न हुआ वह सम्यग्दर्शन निर्हेतुक भी नहीं है । तभी तो आचार्य महाराजने निसर्ग और अधि. गमसे सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति होना बताया है । जिस कारणसे कि सम्यग्दर्शन ऐसा नहीं है-( इस वाक्यका अन्वय आगेकी कारिकामें जोड लेना )
तेन नानादिता तस्य सर्वदोत्पत्तिरेव वा । नित्यं तत्सत्त्वसम्बद्धात्प्रसज्येताविशेषतः ॥१॥
तिस कारणसे उस सम्यग्दर्शनको अनादिपनेका प्रसंग नहीं होता है । क्योंकि एकान्त रूपसे हम सम्यग्दर्शनको अनाद्यनन्तरूप नित्य नहीं मानते हैं। और उस सम्यग्दर्शनकी सब कालोंमें उत्पत्ति ही होते रहनेका भी प्रसंग नहीं है। क्योंकि सम्यग्दर्शनके कारणोंका हम नित्य विद्यमान रहना नहीं मानते हैं, यों सम्यग्दर्शन नित्यहेतुक नहीं है । कारण कि काललब्धि, अधःकरण, प्रतिपक्षी कर्मोंका उपशम, आदि कारणोंके मिलनेपर वह सम्यग्दर्शन कभी कभी उत्पन्न होता है। सर्वदा उत्पन्न नहीं हो पाता है । तथा अनेक कालोंमें संसारी आत्माओंके मिथ्यादर्शनके विद्यमान होनेका सम्बन्ध हो रहा है । अतः सम्यग्दर्शनके नित्यपनेका भी प्रसङ्ग नहीं है। क्योंकि सम्यग्दर्शनको हम अहेतुक नहीं मानते हैं । अथवा आत्मामें उस सम्यग्दर्शनकी सत्ताका सम्बन्ध सहितपना होनेोध कारण सामान्यरूपसे नित्यपनेका प्रसंग दिया जा सकता था । किन्तु सो भी ठीक नहीं है । ना गया आत्मामें सर्वदा सम्यग्दर्शन विद्यमान नहीं माना है । जब सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति होनेके कावे वे सर्वदा