Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 593
________________ ५८० तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके. — बौद्ध अपने सिद्धान्तको पुष्ट करनेके लिये पुनः अनुनय करते हैं कि दूसरे क्षणमें भूत पहिले क्षणकी अपेक्षा रखनेवाले दो क्षणतक ठहरनेरूप स्वभावसे पहिले क्षणमें भविष्य दूसरे क्षणकी अपेक्षा रखता हुआ दो क्षणस्थायीपन स्वभाव तो न्यारा ही है। तिस कारण प्रत्येक क्षणमें पदार्थोका स्वभावभेद मानना ही आवश्यक है। इस कारण सम्पूर्ण पदार्थोकी केवल एक समयतक ही स्थिति सिद्ध हो सकेगी। इस प्रकार कहने वाले बौद्धके प्रति आचार्य महाराज स्पष्ट उत्तर कहते हैं। क्षगमात्रस्थितिः सिद्धवर्जुसूत्रनयादिह । द्रव्यार्थिकनयादेव सिद्धा कालांतरस्थितिः ॥२४॥ पदार्थोके अन्तरंगमें इतनी सूक्ष्मरीतिसे प्रवेश कर बौद्ध जन यदि प्रत्येक क्षणमें स्वभावोंका भेद इष्ट करते हैं तो ऐसी दशामें सूक्ष्म ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षासे यहां केवल एक क्षणतक ही पर्यायोंका ठहरना सिद्ध ही हैं। हां, द्रव्यार्थिक नयसे ही कालान्तरतक ठहरना सिद्ध किया जा रहा है। भावार्थ-जैसे आठसौ योजन ऊपर प्रकाश रहे, सूर्यका भूमितक आतप परिणाम उत्पन्न करानेमें प्रत्येक प्रदेशपर घामका तरतमरूप परिणमन है, तथा आकाशमें भरे हुये चमकनारूप परिणमने योग्य अनन्त पुद्गलस्कन्धोंपर हजारों योजनोंसे तिरछा प्रकाश डालनेवाले सूर्यमें प्रत्येक प्रदेशवर्ती स्कन्धोंके चमकानेवाले अनेक स्वभाव हैं । ' यावन्ति कार्याणि वस्तुनि प्रत्येकं तावन्तः स्वभावभेदाः ' वैसे ही पहिले क्षणमें दूसरे क्षणकी अपेक्षा और दूसरे क्षणमें पहिले क्षणकी अपेक्षासे दो क्षण ठहरनापन न्यारा ही है । तीन, चार, आदि क्षणतक ठहरनेवाले पदार्थोंमें तो प्रत्येक क्षणवर्ती ये स्वभाव चक्रव्यूह होकर रेशमकी गांठके समान इतने बन बैठेंगे जिनकी कि गणना करना भी कष्टसाध्य होगा। तभी तो जैनसिद्धान्तके अनुसार ऋजुसूत्र नयसे मान लिये क्षणिकपनका अनुसरण करना बौद्धोंका उपयुक्त है, किन्तु यह वस्तुका एकदेश है । पूर्णवस्तु तो नित्य, अनित्य, आत्मक है । अतः द्रव्यार्थिकनयसे अधिककालतक ठहरना भी वास्तविक है। न हि वयमृनुसूत्रनयात्मतिक्षणस्वभावभेदात् क्षणमात्रस्थितिं प्रतीक्षयामः ततः कालान्तरस्थितिविरोधात् । केवलं यथार्जुसूत्रात्क्षणस्थितिरेव भावः स्वहेतोरुत्पन्नस्तथा द्रव्यार्थिकनयाकालांतरस्थितिरेवेति प्रतिचक्ष्महे सर्वथाप्यबाधितप्रत्ययात्तत्सिद्धिरिति स्थितिरधिगम्या। ___हम जैन ऋजुसूत्रनयसे प्रत्येक क्षणमें स्वभावभेद होनेके कारण सम्पूर्ण पर्यायोंको केवल एक क्षगतक ठहरनेकी प्रतीक्षा नहीं करते हैं । उस ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षासे दीर्घ कालतक ठहरनेका विरोध है। अर्थात् बौद्धोंके माने गये क्षणिकत्वके हमें उपेक्षा नहीं है या क्षणिकपनके जानने में हम देरी नहीं लगा रहे हैं, टालटूल नहीं करते है। अथवा अन्य अधिककालोंतक ठहरनेका विरोध होजायगा, इस भयसे हम ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा पदाथोके एक क्षणतक ठहरनेकी उपेक्षा नहीं

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