Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
13
तत्वार्य लोकवार्तिके
खतस्तत्त्वं तथात्वे च सर्वार्थानां न तद्भवेत् । व्याप्त्यसिद्धेर्मनीषादेरमूर्तत्वादिधर्मवत् ॥४८॥ यथाप्रतीतिभावानां खभावस्य व्यवस्थितो। काले परापरादित्वं खतोस्त्वन्यत्र तत्कृतम् ॥४९॥...
कुछ अमर्यादित कालतक ठहरनारूप स्थितिसे ज्येष्ठ, कनिष्टपना, निर्णीत नहीं हो जाता है। सहारनपुरसे पटनाकी अपेक्षा बनारस अपर है और कलकत्ता पर है, ये दिशाके द्वारा किये गये परत्व अपरत्व हैं, किन्तु समानगुणवाले और समान दिशामें प्राप्त हुये ऐसे एक क्षेत्रमें स्थित हुये छोटी उम्र वडी उम्रके विद्यमान पदार्थों में परत्व और अपरत्व तो तिस प्रकारके व्यवहारकालको कारण मानकर ही सिद्ध होते हैं । दिशाकी अपेक्षा नहीं बनपाते हैं। बडी उमरके जेठे पुरुषमें कालकृत परत्व है और थोडी उमरके कनिष्ठ भ्रातामें कालकृत अपरत्व है। छोटी उम्रके ब्राह्मणसे बुड्डाभंगी पर है। यहां तर्क है कि इस प्रकार कालमें भी वह परत्व और अपरत्व दूसरे हेतुओंसे प्राप्त होगा और उन दूसरोंमें भी तीसरे कारणसे . परत्व, अपरत्व, आवेगा । आचार्य कहते हैं कि सो यह नहीं समझना। जिससे कि वहां भी अन्य अन्य हेतुओंकी कल्पना करनेसे अनवस्था दोष हो जाय । वस्तुतः देखा जाय तो जैसे अन्य पदार्थोका प्रकाश दीपक या सूर्यसे होता है और दीपक सूर्यका प्रकाश स्वतः हो जाता है, अग्नि स्वयं उष्ण होती हुई अन्य पदार्थोको उष्ण कर देती है। इसी प्रकार ज्येष्ठ,कनिष्ठ, बूढे, बालक आदिमें परत्व, अपरत्व.तो व्यवहारकालसे हैं । और कालमें परत्व, अपरत्व, स्वतः हैं । अन्य हेतुओंसे नहीं आये हैं । व्यवहारकालमें वह परत्व अपरत्व स्वतः है। अतः उसीके समान सभी युवा, वृद्ध आदिक पदार्थोंका वह परत्व, अपरत्व, भी तिस प्रकार होनेपर स्वतः नहीं हो सकेगा। क्योंकि कोई ऐसी व्याप्ति सिद्ध नहीं है । जैसे कि विचारशालिनी बुद्धि, उदारता, आदिके अमूर्तत्व आदिक धर्म हैं । वे धर्म घट, पट, आदिके नहीं हो सकते हैं । स्वपर दोनोंकी ज्ञप्ति करना ज्ञानका स्वभाव है । वह घटका स्वभाव नहीं हो सकता है। स्वभावमें तर्कणा नहीं चलती । जिस प्रकार प्रमाणोंसे प्रतीतियां हो रही हैं उनके अनुसार पदार्थोके स्वभावोंकी व्यवस्था माननेपर तो व्यवहारकालमें परत्व,अपरत्व,परिणाम, आदिक स्वतः हैं और अन्य पदार्थोंमें उस व्यवहारकाल द्वारा किये गये समझने चाहिये । प्रत्यक्ष और युक्ति द्वारा समझा दिये गये स्वभावोंमें व्यर्थ कुतर्के उठाना अच्छा नहीं।
क्वान्यथा व्यवतिष्ठते धर्माधर्मनभांस्यपि । गत्यादिहेतुतापचेर्जीवपुद्गलयोः खतः । ॥५०॥ शरीरवाड्मनःप्राणापानादीनपि पुद्गलाः । प्राणिनामुपकुर्युर्न खतस्तेषां हि देहिनः ॥ ५१॥