Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 651
________________ तत्वार्यलोकवार्तिक - एतेल्पे बहवश्चैतेऽमीभ्योऽर्थातिविविक्तये । कथ्यतेल्पबहुत्वं तत्संख्यातो भिन्नसंख्यया ॥ ५८॥ प्रत्येकं संख्यया पूर्व निश्चितार्थेपि पिंडतः। कथ्यतेल्पबहुत्वं यत्तत्ततः किं न भिद्यते ॥ ५९॥ अब अल्पबहुत्वको कहते हैं । ये समीपमें विद्यमान होरहे पदार्थ उन पदार्थोसे अल्प संख्यावाले हैं और ये समीपतरवर्ती पदार्थ उन परोक्ष पदार्थोसे संख्यामें बहुत हैं । इस प्रकार पदार्थोंके विशेष रूपसे पृथग्भाव करानेके लिये सूत्रमें अल्पबहुत्व कहा जाता है । वह भिन्न भिन्न संख्या करके हुई संख्या प्ररूपणासे न्यारा है। प्रत्येक पदार्थ पहिले संख्या द्वारा निश्चित हो भी चुका है,उस अर्थमें भी समुदित पिण्डरूपसे गिनानेके लिये अल्पबहुत्व कहा जाता है । जब कि वह अल्पबहुत्व ऐसा है,तिस कारण संख्यासे भिन्न क्यों न होगा ? अर्थात्-प्रत्येकको गिननेवाली संख्यासे पिण्डरूपसे मिले हुये अनेक पदार्थोकी अपेक्षा न्यूनता, अधिकतारूप अल्पबहुत्व नामका उपाय तो भिन्न है ।। __ ननु यथा विशेषतोऽर्थानां गणना संख्या तथा पिंडतोपि ततो न संख्यातोल्पबहुत्वं मित्रमिति चेन्न, कथंचिद्भेदस्य त्वयैवाभिधानात् । न हि सर्वथा ततस्तदभेदविशेषे संख्यापिंड संख्येति वक्तुं शक्यम् । यहां शंका है कि जैसे विशेष विशेषरूपसे पदार्थोकी गिनती करमा संख्या है उसी प्रकार पिण्डरूपसे अर्थोके थोडे बहुत पनका गिनना भी संख्या ही है । तिस कारण संख्यासे अल्पबहुत्व मिन्न नहीं है। आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना। क्योंकि तुम शंकाकारने ही कण्ठोक्त अपने मुख करके उनके किसी अपेक्षासे भेदको कह दिया है। हम समाधान करनेका परिश्रम क्यों उठावें, सभी प्रकार उस संख्यासे उस अल्पबहुत्वका यदि विशेषभेद नहीं माना जायगा तो यह संख्याका पिंड है और यह संख्या है इस प्रकार भेदरूपसे कहनेके लिये समर्थ नहीं हो सकोगे । रुपये, पैसेकी .विशेष गिनती होनेपर भी उनके थोडे बहुतपनकी ज्ञप्तिके लिये पिंड संख्या कही जाती है। अतः संख्याका विशेष होते हुये भी अल्पबहुत्वका विशिष्ट अधिगम करानेके वश न्यारा ग्रहण सूत्रमें किया है। इति प्रपंचतः सर्वभावाधिगतिहेतवः । सदादयोनुयोगाः स्युस्ते स्याद्वादनयात्मकाः ॥ ६० ॥ ___ इस प्रकार भेद, प्रभेदके विस्तारसे सम्पूर्ण भावोंकी ज्ञप्तिके कारण सत्, संख्या, आदिक आठ अनुयोग हो जाते हैं, वे सब स्याद्वाद प्रमाणरूप और नयस्वरूप हैं । जगत्के सम्पूर्ण अधिगतिके उपाय प्रमाण और नयसे कोई बहिर्भूत नहीं हैं ।

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