Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 656
________________ तत्वार्याचन्तामणिः 1 1 भी सिद्ध लोकमें ठहर नहीं सकते हैं और वर्तना नहीं कर सकते हैं। जीवको निगोदसे व्यवहार राशिमें लाने के लिये कालपरमाणुयें हो उदासीन कारण होकर परम उपकारी हुई हैं । इन्हीं निमित्तसे कायोंकी किंचित् मन्दपरिणति होजाने पर यह जीत्र झट व्यवहार राशिमें उछल आता है । अन्य कारणों की वहां योग्यता नहीं है । अक्षरके अनन्तमें भाग केवल स्पर्शनइन्द्रियजन्य ज्ञान होनेसे अन्य वे शुभकारण किसी कामके नहीं हैं जो कि संज्ञी जीवों की सम्यग्दर्शन, क्षायिक सम्यक्त्र, तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध आदिके नियतकारण हो जाते हैं। इसके पीछे अन्तरालरूप विरहकालका वर्णन है । अन्तरके अर्थ छिद्र, मध्य भी कचित् ले लिये जाते हैं । औपशमिक आदि मात्रों को समझाने के लिये भावरूपा है । अपन भी पदार्थोकी विशेष ज्ञप्ति कराने के लिये विशेष उपयोगी है | अन्तमें उपसंहार करते हुये विद्यानन्द स्वामीने सूत्रमें कहे गये सत् आदि के पाठक्रमका भले प्रकार साधन कर विस्तारपूर्वक ज्ञप्ति के लिये अन्य ग्रन्थोंके व्याख्यानोंका देखना पथ्य बताया है। ससंख्या यह सूत्र सामान्यको कथन करनेवाला है और निर्देशस्वामित्व यह विशेष प्रतिपादक है जैसे कि सत्का विशेष निर्देश है संख्याका विशेष विधान है, क्षेत्रका विशेष अधिकरण है आदि समझ लेना। यहांतक कहे गये उमास्वामी महाराजके आठ सूत्रोंकी शालिनी पद्य द्वारा संगति दिखलाकर श्लोकवार्तिक ग्रन्थके प्रथम अध्याय सम्बन्धी द्वितीय आह्निकको सहर्ष परिपूर्ण किया है । ॐ शान्तिनाथाय नमः | गाहध्वं सुधियतुर्दशगुणस्थानाम्बुभृन्मार्गणावीच्यावर्तविजृम्भितं घटभत्रैकान्त्यज्ञकाशोषितं । सिञ्चन्तं निखिलार्थवित्तिरसिकान् शद्धप्रमाणात्मकैः । सत्संख्यादिकशीकरैर्गुणनिधिं तत्रार्थशास्त्राम्बुधिं ॥ १ ॥ XUANTITIATIARIATATJAX इति भद्रं भूयात् XURY TATATATATAT -= == ६४३

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