Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
आठवें सूत्रका सारांश प्रथम ही तत्त्वार्थोकी अधिगतिके अर्थ तीसरे विस्तृत ढंगके उपायोंको - बतानेके लिये ग्रंथकारने सूत्रका अबतार कर सत्संख्या आदिको प्रमाणनयस्वरूप और शब्दरूप बताया है । शून्यवाद •या चार्वाक आदिके निषेधार्थ सत्प्ररूपणा आवश्यक है । वैशेषिकोंकी मानी गयी . एक सत्ता ठीक नहीं है । शून्यवादमें स्वपक्षसाधन और परपक्षदूषण नहीं बन पाते हैं। शुसंवेदनको माननेवाले बौद्धोंके यहां भी तत्त्रव्यवस्था नहीं बनती है । ग्राह्यग्राहक भाव आदि मानना अनिवार्य है । पहिले सूत्रमें कहे गये निर्देशसे सत्ताप्ररूपणा न्यारी है । असत्ता तुच्छ पदार्थ नहीं है । किन्तु अन्य पदार्थकी सत्तारूप है । निर्देश और सत्ताके व्याप्य और व्यापक भावपर अच्छा विचार किया है। सर्वार्थसिद्धि, सिद्धान्त आदि ग्रन्थोंमें इस सूत्र उक्त प्रमेयका विशद व्याख्यान है । बौद्ध लोगोंके सन्मुख अन्य अपेक्षिक धर्मोके समान संख्याको वस्तुभूत साधा है। यहां अनुमानोंसे आपेक्षिक धर्मोको परमार्थरूप बताया है। मिथ्यावासनाओंसे यथार्थ कार्य नहीं बनता है। ब्रह्माद्वैतके समान शुद्ध संवेदन भी नहीं दीख रहा है। प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे द्वैत सिद्ध हो रहा है । सम्पूर्ण पदार्थोंमें विद्यमान भी हो रही, संख्या अपने अपने क्षयोपशम अनुसार जान ली जाती है। एक वस्तुमें एकत्व, द्वित्व, आदि अनेक संख्यायें अविरोध रूपसे ठहर जाती हैं। स्याद्वादियों के ऊपर कोई उलाहना नहीं है। जब कि अवच्छेदक धर्म न्यारे न्यारे माने गये हैं। सत् या असत् पदार्थोंका कथमपि विरोध नहीं है। शक्तिकी अपेक्षा योग्यतानुसार सबको सर्वात्मक होना इष्ट है । व्यक्तिकी अपेक्षा नहीं । द्वितीय आदिकी अपेक्षासे द्वित्व आदि संख्यायें प्रगट हो जाती हैं । द्रव्य और पर्यायकी अपेक्षा सम्पूर्ण पदार्थ नित्य, अनित्यस्वरूप हैं। संख्या वास्तविक है कल्पित नहीं है । वैशेषिकों द्वारा संख्या और संख्यावानोंका सर्वथा भेद मानना अनुचित है । समवाय सम्बन्ध विचारा निरंश होकर उनकी
योजना क्या करा सकता है ? समवाय सम्बन्धका दोनोंमें ठहरना अन्य सम्बन्धोंसे ही होगा। इस । प्रकार भेदपक्षमें अनवस्था हो जाती है। विधानसे संख्या न्यारी है। इसके आगे क्षेत्रका वर्णन किया है।
निश्चय नयके अनुसार बौद्धोंकी मानी गयी स्वभाव व्यवस्थितिके एकान्तका निवारण कर प्रमाणोंसे क्षेत्र क्षेत्रीभावका समर्थन किया है । पूर्व सूत्रनें कहे गये अविकरणसे यह क्षेत्रनिरूपण न्यारा है। क्षेत्रानुयोगके पश्चात् स्पर्शनका व्याख्यान है। अनाहिसे अनन्तकालतक ठहरने वाली द्रव्यको माननेवाले वादी करके स्पर्शन मानना आवश्यक है। पीछे स्थितिमान् किये जा चुके पदार्थोमें मर्यादाको दिखलानेवाले कालका निरूपण किया गया है । कालके व्यवहारकाल और मुख्यकाल दो भेद हैं । वर्तना परिणाम आदि उनके कार्य हैं । असाधारण कारणोंके समान साधारण कारण भी महती शक्ति को लिये हुये हैं ! उदासीन कारण आकाश और कालको माने विना परमस्वतंत्र श्रीसिद्ध भगवान्