Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवा
सामान्येनाधिगम्यते विशेषेण च ते यथा । जीवादयस्तथा ज्ञेया व्यासेनान्यत्र कीर्तिताः ॥ ६४ ॥
जीव आदिक पदार्थ सामान्य और विशेषरूप करके जिस प्रकार समझ लिये जाते हैं ति ही प्रकार अन्य धवल, सर्वार्थसिद्धि, गोम्मटसार, सिद्धान्त आदि ग्रन्थों में विस्तार से बखाने गये समझ लेने चाहिये । यहां युक्तिप्रधान ग्रन्थमें उनको गुणस्थान चौदहों और मार्गणाओं द्वारा कहने से बहुत बडा गौरव हो जाता। क्योंकि आगमोक्त परोक्ष विषयोंको भी वादिओंके सन्मुख युक्तिसे समझा चुकने पर ही आगे चलना होता ।
जीवस्तत्र संसारी मुक्त, संसारी स्थावरच त्रसथ, स्थावरः पृथिवीकायिकादिरेकेंद्रियः सूक्ष्मो बादरश्च सूक्ष्मः: पर्याप्तकोपर्याप्तिकथ, तथा बादरोपि, त्रसः पुनद्वन्द्रियादिः पर्याप्तकोऽपर्याप्तकश्चेति सामान्येन विशेषेण च यथासच्चे नाधिगम्यते संख्यादितथा संक्षेपेणाजीवादयोपीहैव । व्यासेन तु गत्यादिमार्गणासु सामान्यतो विशेषतश्च जीववदजीवादयोऽन्यत्र कीर्तिता विज्ञातव्याः ।
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तिन सात तत्वों में जीवतत्त्व सामान्यरूपसे एक है। उसके भेद संसारी और मुक्त दो हैं । तथा संसारी जीव त्रस और स्थावररूप है । तिनमें स्थावरजीव पृथ्वी कायिक, जलकायिक आदि प्रभेदोंसे युक्त होकर सूक्ष्म और बादररूप एकेन्द्रिय है । सूक्ष्मके भी पर्याप्त और अपर्याप्त नामक नामकर्मके उदयसे पर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तक दो भेद हैं । तिसी प्रकार बादर जीव भी पर्याप्तक और अपर्याप्तक दो प्रकार हैं। फिर सजीव तो द्वीन्द्रिय आदि भेदोंसे युक्त होकर पर्याप्त और अपर्याप्त विकल्पों में विभक्त है। निर्वृत्यपर्याप्तकभेद भी इन्हीमें गर्भित हो जाता है । इस प्रकार सामान्य और विशेषरूपसे जैसे जीव सत्पनेसे जाने जाते हैं, तैसे ही संख्याक्षेत्र आदिकों करके भी निर्णीत किये जाते हैं। तथा संक्षेप करके अजीव आदिक तत्त्व भी इस दशाध्यायी सूत्रमें ही कह दिये जायेंगे । अथवा इसी सूत्रद्वारा अजीव आसव, आदि तत्वोंकी सत्संख्या आदिको यहां ही लगा लेना। हां, विस्तारसे तो गुणस्थानों के अनुसार गति, इन्द्रिय, आदि मार्गणाओं में सामान्यरूप और विशेषरूप जीव पदार्थके समान अजीव, आस्रव आदि भी अन्य धवल, आदि ग्रन्थोंमें व्याख्यान किये गये हुये वहांसे विशद ढंगपर समझलेने चाहिये ।
'इत्युद्दिष्टौ व्यात्मके मुक्तिमार्गे सम्यग्दृष्टेर्लक्षणोत्पचिहेतून् । तच्चन्यासौ गोचरस्याधितुं हेतुर्नानानीतिकथानुयोगः ॥ १ ॥