Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 647
________________ तवार्यलोकवार्तिक anrammmmmmmmmm पदार्थीका साधारण कारण काल है, जो कि स्वतः वतनास्वरूप है । यानी अन्योंकी वर्तना कराता है और अपनी भी वर्तना करता है । मिरच - स्वयं चरपरी है और भोजन ( तरकारी) को भी चरपरा करदेती है। ऐसे ही लवण, गोंद, तखरी, सुगुरु, जल, नाव, दीपक, घोडा आदिमें भी... लगालेना। न हि जीवादीनां वृत्तिरसाधारणादेव कारणादिति युक्तं, साधारणकारणद्विना कस्यचित्कास्यासंभवात् करणज्ञानवत् । तत्र हि मनःप्रभृति साधारणं कारणं चक्षुराधसाधारणमन्यतरापाये तदनुपपत्तेः। तद्वत्सकलवृत्तिमतां वृत्तौ कालः साधारणं निमित्तचो. . पादानमसाधारणमिति युक्तं पश्यामः । खादि तन्निमित्रं साधारणमितिचेन्न, तस्यान्य. निमित्तत्वेन प्रसिद्धः । केनचिदात्मना तत्तन्निमित्तत्वमपीति चेत्, स एवात्मा काल इति न तदभावः । तथा सति कालो द्रव्यं न स्यादिति चेन्न, तस्य द्रव्यत्वेन वक्ष्यमाणत्वात् । ___जीव, पुद्गल आदिकोंकी उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप वर्तना केवल असाधारण कारणसे ही हो जाय, इस प्रकार नैयायिक, श्वेताम्बर आदि वादियोंका कहना युक्त नहीं है। क्योंकि साधारण कारणके विना किसी भी कार्यका उत्पाद होना असम्भव है। जैसे कि प्रमाणरूप करणज्ञानका । देखिये, उस करण ज्ञानमें मनइन्द्रिय, आत्मा, आदि तो साधारण कारण हैं और चक्षु, विशिष्टक्षयोपशम, आदिक असाधारण कारण हैं । इन दोनों कारणों से एकके भी न होनेपर उस इन्द्रियप्रत्यक्षकी उत्पत्ति होना नहीं बनता है। तिसीके समान सम्पूर्ण वर्तनावाले पदार्थोकी परिणति होने कालद्रव्य साधारण कारण है तथा निमित्तकारण और उपादान कारण ये सब असाधारण कारण हैं । इस सिद्धान्तको हम युक्त देख रहे हैं ( समझ रहे हैं )। कोई कहे कि आकाश आदिक ही उस वर्तनाके साधारण कारण हो जायेंगे, आचार्य कहते हैं कि सो यह तो न कहना । क्योंकि उन आकाश आदिकोंकी अन्य अवगाह आदि कार्योंके निमित्तपनेसे प्रसिद्धि हो रही हैं। अपने किसी एक स्वरूपसे वह आकाश • उस वर्तनाका भी निमित्त हो जायगा, इस प्रकार कहनेपर तो हम जैन कहेंगे कि वह स्वरूप ही तो कालद्रव्य है। एक आकाशमें दो द्रव्योंके स्वभाव नहीं ठहर सकते हैं। इस कारण उस कालव्यका अभाव नहीं हुआ। यदि कोई कहे कि तिस प्रकार होते हुये भी काल पदार्थ द्रव्य तो नहीं सिद्ध हो सकेगा ? वह तो एक नियत आकाशद्रव्यका स्वभाव माना गया । सिद्धान्ती कहते हैं कि यह न कहना । क्योंकि उस मुख्यकालको द्रव्यपने करके भविष्य पांचवें अध्यायमें स्पष्ट रूपसे कह दिया जावेगा । अर्थात्-गुणपर्यायवान् होनेसे काल भी द्रव्य साध दिया जायगा। यहांतक कालका प्ररूपण हुआ । अब अन्तरको कहते हैं। १ स्वहेतोर्जायमानस्य कुतश्चिद्विनिवर्तने । .. ... पुनःप्रसूतितः पूर्व विरहोंतरमिष्यते॥५५॥....

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