Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 646
________________ तत्वार्थचिन्तामणिः ६३६ जीवा वा चेतनान स्युः कायाः संतु स्वकास्तथा । निंबादिमधुरस्तिक्तो गुडादिः कालविद्विषाम् ॥ ५२ ॥ अन्यथा यानी प्रामाणिक प्रतीतिके अनुसार यदि भावोंके स्वभावोंकी व्यवस्था न मानी जायगी तो जीव और पुद्गलकी गतिके उदासीन कारण धर्म तथा स्थिति के उदासीन कारण अधर्म द्रव्य तथा अवगाहके कारण आकाशद्रव्य भी कहां व्यवस्थित हो सकेंगे? जीव और पुद्गलकी गति, स्थिति, अवगाहनाके कारणपनेका प्रसंग स्वयं जीव पुद्गलको ही प्राप्त हो जावेगा, जैसे कि आकाश स्वयं अपना अवगाह कर लेता है । तथा पुद्गल द्रव्य भी प्राणियोंके शरीर, वचन, मन, प्राण, अपान, सुख, दुःख, आदिक उपकारोंको न कर सकेंगे। इसी प्रकार- शरीरधारी प्राणी भी स्वतः उन पुद्गलोंका प्रक्षालन, मार्जन, रचनाविशेष, आदि द्वारा नियमसे उपकार न कर सकेंगे। अपना अपना स्वतः ही उपकार किया जा सकेगा। प्रत्यक्षसिद्ध या प्रमाणसिद्ध पदार्थोके स्वभा. वोंकी यदि प्रतीतिके अनुसार व्यवस्था नहीं मानी जायगी तो भारी गोटाला मच जायगा । जीव पदार्थ चेतनस्वरूप न हो सकेंगे, तिसी प्रकार अपने जडशरीर चेतना बन बैठेंगे । निम्ब, नींबू, कुटकी, करेला, आदि पदार्थ मीठे बन जायेंगे । और पोंडा, मिश्री, आदिक कडवे हो जायेंगे। कालद्रव्यसे द्वेष करनेवाले वादियोंके यहां किसी भी तत्त्वकी ठीक व्यवस्था न हो सकेगी। हां, कालको माननेवाले स्याद्वादियोंके यहां तो मुख्यकाल द्वारा पदार्थोकी वर्तना होती हुई व्यवहार कालसे परिणाम, परत्व, अपरत्व, क्रिया, ये सब बन जाते हैं और प्रतीतिके अनुसार धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीवके द्वारा नियत करे गये कार्य भी सम्हल जाते हैं। कोरी तर्कणा करने वाले तो " घृताधारं पात्रं पात्राधारम्वा घृतं " बर्तन में घी है या घीमें बर्तन है ऐसे निस्तत्व विकल्पोंमें पडकर अपने लिये अनिष्ट कर बैठते हैं। एकत्रार्थे हि दृष्टस्य स्वभावस्य कुतश्चन । कल्पना तद्विजातीये स्वेष्टतत्त्वविघातिनी ॥५३॥ तस्माज्जीवादिभावानां स्वतो वृत्तिमतां सदा । कालः साधारणो हेतुर्वर्तनालक्षणः स्वतः ॥ ५४ ॥ एक अर्थमें देखे हुये स्वभावका किसी भी कारणसे यदि उस विजातीय पदार्थमें उस स्वभावकी कल्पना की जायगी तब तो अपने अभीष्ट तत्वोंका विघात करनेवाली वह समझी जायगी हथिनीके पलानको छिरिया झेल नहीं सकती है । सूर्यका स्वपरप्रकाशकपना स्वभाव घडेमें नहीं माना जासकता है। तिस कारण सर्वदा स्वयं अपने स्वरूपसे वर्जनाको प्राप्त हो रहे जीव, पुङ्गल, आदि

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