Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
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तदात्मकपना वस्तुसे भिन्न ही है, यह भी नहीं बखानते हैं, जिससे कि उन उन परिणामोंको अतीतपना होनेपर और भविष्यपना होनेपर वस्तुको कथंचित् अनन्तपन और अनादिपन नहीं सिद्ध हो पाता । तिस कारण अनादिसे अनन्तकालतक ठहरी हुयी वस्तुका किसी अपेक्षा तीनों कालोंमें गोचर - पना खण्डन करने योग्य नहीं है । उद्गमस्थानसे लेकर समुद्रपर्यंत अखण्ड गंगाकी धारके समान अतीत, वर्तमान, भविष्यत् कालके परिणामोंसे अविरुद्ध होकर तदात्मक होता हुआ वस्तु है । इ कारण तीनों कालमें श्लेष होना रूप अंश उस वस्तुका स्वरूप है और ऐसे श्लेष (स्वरूप) स्पर्शनका उपदेश दिया गया है | यहांतक स्पर्शनका निरूपण कर अब कालका विवरण करते हैं ।
स्थितिमत्सु पदार्थेषु योवधिं दर्शयत्यसौ ।
कालः प्रचक्ष्यते मुख्यस्तदन्यः स्वस्थितेः परः ॥ ४४ ॥
एक समय या अधिक समय तक ठहरनेवाले पदार्थोंमें जो अवधिको दिखलाता है, वह काल बखाना जाता है। उस व्यवहारकालसे काल परमाणुरूपं मुख्यकाल भिन्न है । निर्देश आदि सूत्रमें कही गयी पदार्थोंकी अपनी अपनी स्थितिसे यह सत्संख्या सूत्रमें कहा गया काल निराला है ।
न हि स्थितिरेव प्रचक्ष्यमाणः कालः स्थितिमत्सु पदार्थेष्ववधिदर्शनहेतोः कालत्वात् । स्थानक्रियैव व्यवहारकालो नातोऽन्यो मुख्य इति चेन्न तदभावे तदनुपपत्तेः । तथा हि:
कुछ काल तक स्थित रहना ही भविष्य पांचवें अध्यायमें प्रकृष्ट रूपसे व्याख्यान किया जाने वाला कालपदार्थ नहीं है । क्योंकि स्थितिवाले पदार्थोंमें मर्यादाको दिखलानेवाले कारणको कालपन व्यवस्थित है । अर्थात् - पदार्थोंके कुछ समयतक ठहरनेको स्थिति कहते हैं और स्थितिमान् अर्थका एक समय, एक दिन, सौ वर्ष, आदि अवधिके परिणामको काल कहते हैं । यहां श्वेताम्बर जैन कहते हैं कि पदार्थों का एक समय, गोदोहनवेला, अस्तसमय, वर्ष, आदि व्यवहार कालोंमें ठहरनारूप क्रिया ही व्यवहारकाल है । इस व्यवहार कालसे अन्य कोई मुख्यकाल नहीं है । आचार्य कहते हैं कि सो यह तो न कहना। क्योंकि उस मुख्यकालका अभाव माननेपर उस व्यवहार कालकी सिद्धि नहीं हो पाती है। जैसे कि मुख्य सिंहके विना शूरवीरतायुक्त मनुष्य में सिंहपनेका व्यवहार नहीं बनता है । लोकाकाशके प्रदेशों बराबर असंख्यात काल परमाणु शुद्ध द्रव्योंके होनेपर ही पुद्गलद्रव्योंसे अनन्तगुण व्यवहारकाल बन जाते हैं । अन्यथा नहीं । श्रीविद्यानन्द स्वामी वार्तिक द्वारा तिसी प्रकार स्पष्ट कर दिखलाते हैं ।
न क्रियामात्रकं कालो व्यवहारप्रयोजनः ।
मुख्यकालादृते सिद्धयेद्वर्तनालक्षणात्कचित् ॥ ४५ ॥