Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 643
________________ तत्वार्थ लोकवार्तिके ३३० तदात्मकपना वस्तुसे भिन्न ही है, यह भी नहीं बखानते हैं, जिससे कि उन उन परिणामोंको अतीतपना होनेपर और भविष्यपना होनेपर वस्तुको कथंचित् अनन्तपन और अनादिपन नहीं सिद्ध हो पाता । तिस कारण अनादिसे अनन्तकालतक ठहरी हुयी वस्तुका किसी अपेक्षा तीनों कालोंमें गोचर - पना खण्डन करने योग्य नहीं है । उद्गमस्थानसे लेकर समुद्रपर्यंत अखण्ड गंगाकी धारके समान अतीत, वर्तमान, भविष्यत् कालके परिणामोंसे अविरुद्ध होकर तदात्मक होता हुआ वस्तु है । इ कारण तीनों कालमें श्लेष होना रूप अंश उस वस्तुका स्वरूप है और ऐसे श्लेष (स्वरूप) स्पर्शनका उपदेश दिया गया है | यहांतक स्पर्शनका निरूपण कर अब कालका विवरण करते हैं । स्थितिमत्सु पदार्थेषु योवधिं दर्शयत्यसौ । कालः प्रचक्ष्यते मुख्यस्तदन्यः स्वस्थितेः परः ॥ ४४ ॥ एक समय या अधिक समय तक ठहरनेवाले पदार्थोंमें जो अवधिको दिखलाता है, वह काल बखाना जाता है। उस व्यवहारकालसे काल परमाणुरूपं मुख्यकाल भिन्न है । निर्देश आदि सूत्रमें कही गयी पदार्थोंकी अपनी अपनी स्थितिसे यह सत्संख्या सूत्रमें कहा गया काल निराला है । न हि स्थितिरेव प्रचक्ष्यमाणः कालः स्थितिमत्सु पदार्थेष्ववधिदर्शनहेतोः कालत्वात् । स्थानक्रियैव व्यवहारकालो नातोऽन्यो मुख्य इति चेन्न तदभावे तदनुपपत्तेः । तथा हि: कुछ काल तक स्थित रहना ही भविष्य पांचवें अध्यायमें प्रकृष्ट रूपसे व्याख्यान किया जाने वाला कालपदार्थ नहीं है । क्योंकि स्थितिवाले पदार्थोंमें मर्यादाको दिखलानेवाले कारणको कालपन व्यवस्थित है । अर्थात् - पदार्थोंके कुछ समयतक ठहरनेको स्थिति कहते हैं और स्थितिमान् अर्थका एक समय, एक दिन, सौ वर्ष, आदि अवधिके परिणामको काल कहते हैं । यहां श्वेताम्बर जैन कहते हैं कि पदार्थों का एक समय, गोदोहनवेला, अस्तसमय, वर्ष, आदि व्यवहार कालोंमें ठहरनारूप क्रिया ही व्यवहारकाल है । इस व्यवहार कालसे अन्य कोई मुख्यकाल नहीं है । आचार्य कहते हैं कि सो यह तो न कहना। क्योंकि उस मुख्यकालका अभाव माननेपर उस व्यवहार कालकी सिद्धि नहीं हो पाती है। जैसे कि मुख्य सिंहके विना शूरवीरतायुक्त मनुष्य में सिंहपनेका व्यवहार नहीं बनता है । लोकाकाशके प्रदेशों बराबर असंख्यात काल परमाणु शुद्ध द्रव्योंके होनेपर ही पुद्गलद्रव्योंसे अनन्तगुण व्यवहारकाल बन जाते हैं । अन्यथा नहीं । श्रीविद्यानन्द स्वामी वार्तिक द्वारा तिसी प्रकार स्पष्ट कर दिखलाते हैं । न क्रियामात्रकं कालो व्यवहारप्रयोजनः । मुख्यकालादृते सिद्धयेद्वर्तनालक्षणात्कचित् ॥ ४५ ॥

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