Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थकोकवार्तिक
पुण्यपापाद्यनुष्टानं पुनरपि संवाहकर्तक्रियाफलानुभवितृनानात्वे कृतनाशाकृताभ्यागमप्रसक्तेईरोत्सारितमेव । तत्संतानैक्ये चैकद्रव्यत्वस्य सिद्धेर्न निरन्वयक्षयकांतस्तद्वादिभिरभ्युपगंतव्यः । ततः सर्वथा संतानाद्युपगमे द्रव्यस्य कालांतरस्थायिनः प्रसिद्धन क्षणादूर्ध्वमस्थितिः पदार्थानाम् ।
फिर क्षणिकवादमें पुण्य, पाप, ऋण लेना, देना, आदि क्रियाओंका अनुष्ठान करना तो दूर फेंकदिया गया ही समझो। क्योंकि दान करनेवाला चित्त (आत्मा) तो नष्ट हो गया, स्वर्ग अन्यको ही प्राप्त होगा। ऐसे ही हिंसक अन्य है, नरकगामी दूसरा ही जीव बनेगा। ऋण लेने देनेवाले व्यक्ति भी सब बदल चुके हैं । माता पुत्रको प्रेम न कर सकेगी। परदेशी पुरुष ही स्वदेशको न लौट सकेगा। ब्रह्मचर्यव्रत लुप्त हो जायगा इत्यादि । तथा मर्दन करनेवाला पुरुष और उस क्रियाके फलको अनुभव करनेवाला आत्मा यदि भिन्न भिन्न माने जायेंगे तो कृतके नाश और अकृतके अभ्यागम दोषोंका प्रसंग होता है । जिसने शुभ अशुभ कर्म किये वह नष्ट होगया और जिसने कर्म नहीं किये थे उसको बलात्कारसे शुभ अशुभ फल भोगने पडे । परिश्रम किया किसीने और पारितोषिक प्राप्त करनेके लिए अन्यने हाथ पसार दिया । इस तुच्छताका भी कोई ठिकाना है । इस कारण पुण्यकर्म, पापकर्म, चाकरी, सेवाकृत्य, आदि अनुष्ठान करना सब दूर ही फेंक दिया जा चुका समझो । यदि कर्ता और फलके अनुभविता की सन्तान यहांसे वहांतक लम्बी एक मानी जायगी, तब तो एकद्रव्यपनकी सिद्धि हो जाती है । इस कारण अन्वयरहित होते हुये एक क्षण में ही नष्ट हो जानेका एकान्त तो उसको कहनेवाले बौद्धों करके नहीं स्वीकार करना चाहिये। तिस कारण सभी प्रकारसे सन्तान, समुदाय आदिके स्वीकार करनेपर कालान्तरतक ठहरनेवाले द्रव्यकी प्रमाणोंसे सिद्धि हो जाती है। अतः एक क्षणमें ऊपर पदार्थोकी स्थिति न होना नहीं सिद्ध हो सका। श्रीराजवार्तिकमें जायते, अस्ति, विपरिणमते, वर्धते, अपक्षयते, विनश्यति, यह क्रम साधा है। - यथा चैकक्षणस्थायी भावो हेतोः समुद्भवेत् ।
तथानेकक्षणस्थायी किन्न लोके प्रतीयते ॥ २३ ॥ .: . जिस प्रकार कि एक क्षणतक ठहरनेवाला पदार्थ अपने हेतुसे उत्पन्न होता है यह बौद्धोंने माना है तिसी प्रकार हेतुसे उत्पन्न होता हुआ अनेक क्षणोंतक ठहरनेके स्वभाववाला पदार्थ भी क्यों न मीना जाय, जो कि लोकमें प्रमाणों द्वारा प्रतीत हो रहा है। अर्थात्-कारणोंसे एक क्षण स्थायी पदार्थोकी उत्पत्तिके समान अनेक समयोंतक ठहरनेवाले कंकण, कलश, कटोरा, आदि पदार्थ उत्पन्न हो रहे लोकमें देखे जाते हैं । वस्तुतः देखा जाय तो दीपकलिका, बिजली, बबूला, आदि पदार्थ भी नानाक्षणोंतक ठहरकर आत्मालाम करते हुये ही ' दृष्टिगोचर हो रहे हैं । प्रथमक्षणमें उत्पन्न होकर द्वितीय क्षणमें आत्मलाभ करता हुआ ही पदार्थ अर्थक्रियाको कर सकता