Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
नहीं बन सकती है और तिस प्रकार क्षयोपशमके अनुसार ज्ञान होनेकी व्यवस्था हो चुकनेपर पदाथोंमें नियत होरही एकत्व, आदिक सम्पूर्ण संख्यायें सम्पूर्ण अर्थोंमें विद्यमान हो रही भी निश्चयके कारणस्वरूप क्षयोपशमके न होनेपर निश्चयको नहीं उत्पन्न कराती हैं और उस क्षयोपशमके होनेपर ही किसी किसी व्यक्तिको उस संख्याका निश्चय हो जाता है। यह मार्ग अतीव प्रशंसनीय है।
यत्रैकत्वं कथं तत्र द्वित्वादेरपि संभवः।
परस्परविरोधाच्चेत्तयोनैवं प्रतीतितः ॥ २१ ॥
यदि कोई यों आक्षेप करे कि जिस पदार्थमें एकत्वसंख्या विद्यमान है वहां द्वित्व त्रित्व, आदिका भी ठहरना कैसे सम्भव होगा ? क्योंकि उनका परस्परमें विरोध है । जो दो, तीन हैं वे एक नहीं । और जो एक है वह दो तीन नहीं । आचार्य कहते हैं कि सो इस प्रकार आक्षेप नहीं करना। क्योंकि तैसी प्रामाणिकोंको प्रतीति हो रही है । प्रतीतिसे सिद्ध हुये पदार्थमें विरोध नहीं हुआ करता है । " दृष्टे कानुपपत्तिता”
प्रतीते हि वस्तुन्येकत्वसंख्या द्वितीयाद्यपेक्षायां द्वित्वादिसंख्या चानेकस्थत्वात्तस्यास्ततो न विरोधः।
प्रमाणसे निर्णीत कर ली गयी एक वस्तुमें एकत्व संख्या है और दूसरे, तीसरे, आदि पदायोकी अपेक्षा होनेपर द्वित्व, त्रित्व, आदि संख्यायें भी हैं । वे द्वित्व आदि संख्यायें अनेकमें ठहरती हैं तिस कारण कोई विरोध नहीं है । भावार्थ-प्रत्येकमें ठहरी हुई एकत्व संख्याके साथ दो, तीन, चार, आदि संख्यायें भी अन्योंकी अपेक्षासे ठहर जाती हैं। इस प्रकार प्रतीतियोंसे उपलम्भ हो जाने पर अनुपलम्भसे साधागया विरोध भला कहां ठहर सकता है ? वैशेषिकोंने भी समवाय सम्बन्धसे एकमें एकत्व, द्वित्व, त्रित्व, आदि संख्यायें मानी हैं और पर्याप्ति सम्बन्धसे दोनोंमें द्वित्व और तीनोंमें एक त्रित्व संख्या व्यापकर रहती मानी है । अपेक्षा बुद्धिके नाशसे उन द्वित्व आदिक संख्याओंका नाश स्वीकार किया है।
वस्तुन्येकत्र दृष्टस्य परस्परविरोधिनः। वृत्तिधर्मकलापस्य नोपालंभाय कल्पते ॥ २२ ॥
स्याद्वादविद्विषामेव विरोधप्रतिपादनात् । - यथैकत्वं पदार्थस्य तथा द्वित्वादि वांछताम् ॥ २३ ॥ __ शंकाकारके विचार अनुसार परस्पर विरोधी किन्तु वस्तुतः परस्परमें अविरोधसे ठहरे हुये देखे गये धर्मोके समुदायका एक वस्तुमें वर्तजाना हमें उलाहना देनेके लिये समर्थ नहीं होता है। प्रत्युत स्याद्वादसिद्धान्तके साथ अनुचित विशेष द्वेष करनेवाले वादियोंके यहां ही विरोध होना कहा