Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

View full book text
Previous | Next

Page 630
________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः । वात् । सकृत्सर्वसंख्यायाः प्रत्ययो नानुभूयते एवेति चेत्, सत्यं । क्रमादभिव्यक्तिः कचिद्वित्वसंख्या हि द्वितीयाभिव्यक्ता द्वित्वप्रत्ययविज्ञेया, तृतीयाद्यपेक्षया तु त्रित्वादि संख्याभिव्यक्ता त्रित्वादिप्रत्ययवेद्या । तथानभिव्यक्तायास्तस्याः तत्सत्ययाविषयत्वादसत्सर्वसंख्यासंप्रत्ययः। पुनः शंका है कि इसी प्रकार सभी पदार्थोंमें सम्पूर्ण संख्याओंकै भले ज्ञान (निर्बाध ) होनेका सद्भाव नहीं हैं तो फिर एकत्व, द्वित्व आदि सभी संख्यायें सभी पदार्थोंमें कैसे व्यवस्थित हो जाती हैं ? तुम जैन ही बताओ ? यदि समीचीन ज्ञानके विना भी चाहे जिसको चाहे जहां धर दिया जायगा, तब तो अतिप्रसंग हो जायगा । आकाशमें भी ज्ञान, रूप, रस आदि पदार्थोके ठहर जानेकी व्यवस्था बन बैठेगी । ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार तो शंका न करनां । वयोंकि एक ही पदार्थ एकपनेके ज्ञान समान दूसरे, तीसरे आदि पदार्थोकी अपेक्षासे होते हुये द्वित्व, त्रित्व आदि संख्याओंके ज्ञानोंका बालकोंतकको अनुभव हो रहा है । इसपर शंकाकार यदि यों कहें कि एक ही समय सम्पूर्ण संख्याओंका ज्ञान होना तो नहीं अनुभवमें आ रहा है, आचार्य कहते हैं कि हां, शंकाकारका यह कहना तो ठीक है, हम संख्याओंका क्रमसे प्रकट होना मानते हैं, किसी एक पदार्थमें दूसरे पदार्थसे प्रकट हुई द्वित्वसंख्या द्वित्व ज्ञानसे जानने योग्य है और कहीं तृतीय, चतुर्थ, आदि पदार्थोकी अपेक्षासे अभिव्यक्त हुई त्रित्व, चतुष्ट्र आदि संख्यायें तो त्रित्व आदिके ज्ञानसे जानने योग्य हैं। अतः तिस प्रकार नहीं प्रगट हुई उन संख्याओंको उन उन ज्ञानोंका नहीं विषयपना होनेके कारण एकबार ही सम्पूर्ण संख्याओंका समीचीन ज्ञान नहीं हो पाता है। यथायोग्य शनैः शनैः उपज रही या प्रकट हो रही सर्व संख्याओंका ज्ञान क्रमसे ही होगा। ननु संख्याभिव्यक्तेः प्राक्कुतस्तनी कुतः सिद्धा ? तदा तत्प्रत्ययस्यासंभवात् । तत्संभवे वा कथं नाभिव्यक्ता ? यदि पुनरसती तदा कुतोऽभिव्यक्तिस्तस्याः मंडूकशिखावदित्येकांतवादिनामुपालंभः न स्याद्वादिना सदसदेकांतानभ्युपगमात् । सा हि शक्तिरूपतया प्राक्कुतस्तनी परापेक्षातः पश्चादभिव्यक्त्यन्यथानुपपत्त्या सिद्धा व्यक्तिरूपतया स्वसती साक्षात्खप्रत्ययाविषयत्वादिति द्रव्यार्थप्राधान्यादुपेयते । पर्यायार्थप्राधान्यात्तु सापेक्षा कार्या तद्भावभावात् । न यसत्यामपेक्षायां द्वित्वादि संख्योत्पद्यत इति न भावस्य व्यक्तसंख्यापेक्षया सर्वसंख्यात्मकत्वं यतस्तद्वत् सर्व सर्वात्मकत्वं यतस्तद्वत्पसज्यते । तत्पसंग एव च सर्वत्र सर्वसंख्यामत्ययस्य यथासंभवमनुभूयमानस्य बाधकः स्यात्, तदषापिताच संख्यामत्ययात् सिद्धा वास्तवी संख्या। ___पुनः एकान्तवादियोंका नर्म पूर्वक आक्षेप है कि अभिव्यक्ति उस पदार्थकी मानी जाती है 78

Loading...

Page Navigation
1 ... 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674