Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यकोकवार्तिके
जिसकी कि ज्ञानके पहिले भी वहां सत्ता सिद्ध की जा सके, जैसे कि अन्धकारमें पहिलेसे रखा हुआ घट प्रदीपसे व्यक्त हो जाता है अथवा धूलसे ढका हुआ रुपया आवारकके हट जानेपर प्रगट हो जाता है, अब आप जैन यह बतलाइये ! कि दूसरे तीसरे आदि अर्थोसे प्रगट हुई संख्या अपनी अभिव्यक्तिसे पहिले किन पदार्थोसे निष्पन्न होती हुई, किस प्रमाणसे सिद्ध की जा सकती है ! क्योंकि उस समयके पहिले तो उस संख्याके ज्ञानका असम्भव है। यदि पहिले समयोंमें भी उस संख्याके शानका सम्भव स्वीकार किया जायगा तो वह प्रथमसे ही प्रगट हो रही क्यों नहीं कही गयी, अब दूसरे आदि अर्थोकी अपेक्षासे प्रकट होती हुई क्यों कही जाती है ! यदि फिर जैनोंका यह विचार होय कि अभिव्यक्तिके पहिले वहां पदार्थोमें संख्या विद्यमान नहीं थी तब तो हम शंकाकार कहते हैं कि तब फिर उसकी अभिव्यक्ति कहांसे हुई बताओ? जैसे कि सर्वथा असत्रूपा मैडकको चोटीकी अभिव्यक्ति नहीं हो पाती है । ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार यह एकान्त वादियोंका उलाहना उन्हींके ऊपर गिरता है। सर्वथा सत्पक्षको लेनेवाले असत् पक्षवालेको उलाहना देवें और सर्वथा असत् पक्षका अवलम्ब लेनेवाले सत्पक्षवादीकी भर्त्सना भले ही करें, किन्तु कथंचित् सत् और कथंचित् असत्के अनेकान्तपक्षको स्वीकार करनेवाले स्याद्वादियोंके ऊपर कोई उलाहना नहीं आता है । क्योंकि जैनोंने सर्वथा सत्के एकान्त और सर्वथा असत्के एकान्तको स्वीकार नहीं किया है । उस संख्याकी पीछे कालमें दूसरों की अपेक्षासे अभिव्यक्ति होना अन्यथा नहीं बनता है । इस कारण किसी न किसी हेतुसे बनी हुई पहिले भी शक्तिरूप करके वह संख्या विद्यमान थी, यह सिद्ध है। हां, व्यक्तिरूपसे तो वह संख्या पहिले विद्यमान नहीं थी। क्योंकि साक्षात् यानी अव्यवहितरूपसे अपने संख्याज्ञानमें वह विषयभूत नहीं हुई थी। इस प्रकार तीनों कालमें अन्वित रहनेवाले द्रव्यरूप अर्थकी प्रधानतासे संख्याको नित्य हम जैन स्वीकार करते हैं और अल्पकाल रहनेवाले पर्यायरूप अर्थकी प्रधानतासे तो वह संख्या कारणोंकी अपेक्षा रखनेवाली है। अतः कार्य है। क्योंकि उन द्वितीय, तृतीय, आदि पदार्थोके होनेपर द्वित्व, त्रित्व, संख्याकी उत्पत्ति होना देखा जाता है । अपेक्षाके सर्वथा न होनेपर द्वित्व, त्रित्व, आदि संख्या कभी नहीं उत्पन्न होती हैं । इस कारण भावोंका व्यक्त हुई संख्याओंकी अपेक्षासे सम्पूर्ण संख्याओंके साथ तदात्मकपना नहीं है। जिससे कि उस शक्तिरूपपनेके समान व्यक्तिरूपसे भी सभी पदार्थोंको सर्वस्वरूप हो जानेपनेका प्रसंग हो जाता और सम्पूर्ण पदायोंमें यथायोग्य सम्भव होकर अनुभव किये जारहे सम्पूर्ण संख्याओंके ज्ञानका वह प्रसंग ही बाधक हो जाता अर्थात्-वह प्रसंग न हुआ। अतः सभीमें सर्व संख्या ज्ञानका बाधक न हो सका । तिस कारण बाधारहित संख्याज्ञानसे वास्तविक संख्या ज्ञानसे वास्तविक संख्या सिद्ध हो जाती है । वैशेषिकोंने " द्वित्वादयः परार्धान्ता अपेक्षाबुद्धिजा मताः । अपेक्षाबुद्धिनाशाच्च नाश"स्तेषां निरूपितः " इस प्रकार द्वित्व आदि संख्याको सर्वथा अनित्य माना है और कापिलोंने संख्याको सर्व प्रकार नित्य ही माना है । जैनसिद्धान्त अनुसार संख्या कथंचित् नित्य अनित्य आत्मक है।