Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 633
________________ तत्वार्थ लोकवार्तिके संख्या तद्वतो भिन्नैव भिन्नप्रतिभासत्वात् सह्यविंध्यवदित्येके, तेषां द्रव्यमसंख्यं स्यात् संख्यातोत्यंतभिन्नत्वाद्गुणादिवत् । तत्र संख्या समवायात्ससंख्यमेव तदिति चेत् न, तद्वशादेवं व्यपदेशस्यायोगात् । ६२० म संख्यावाले द्रव्यसे संख्यागुण भिन्न ही है । क्योंकि उन संख्या और संख्यावान्का भिन्न भिन्न प्रतिभास हो रहा है, जैसे कि भारत ( हिन्दुस्तान ) के दक्षिण में सह्यपर्वत और उत्तर में विंध्य पर्वतका न्यारा न्यारा ज्ञान होनेसे वे दो पर्वत भिन्न माने जाते हैं, इस प्रकार कोई एक वैशेषिक कह रहे हैं। सो उनके यहां ऐसा माननेपर संख्या से अत्यन्त भिन्न होनेके कारण गुण आदि For भी संख्यारहित हो जायगा । यदि वैशेषिक यों कहें कि गुण आदिकमें तो संख्याका समवाय सम्बन्ध नहीं है, किन्तु उस द्रव्यमें संख्याके समवाय हो जानेसे वह द्रव्य संख्यासहित ही हो जाता है | आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना। क्योंकि उस समवायके वशसे इस प्रकार ससंख्यपनेका व्यपदेश नहीं हो सकेगा । "6 ज्ञानवान् " और " ज्ञ " में अन्तर है । समवाय सम्बन्धसे ज्ञानवान् आत्मा है, यह व्यवहार भेदको दिखलाते हुये हो रहा है । किन्तु आत्मा ज्ञ है यह व्यवहार तो ज्ञानका आत्माके साथ तादात्म्य माननेपर ही सिद्ध होता है। इसी प्रकार ससंख्य द्रव्य और संख्यावान् द्रव्य इन व्यवहारोंमें भी तादात्म्य और समवाय सम्बन्धके द्वारा विशेषता है तादात्म्यके माननेपर ही कथंचित् भेद शोभा देता है । 1 न समवायः संख्यावद्द्रव्यमिति व्यपदेशनिमित्तं नियमाकारणत्वात् । प्रतिनियमाकारणं समवायः सर्वसमवायिसाधारणैकरूपत्वात् । सामान्यादिमत्सु द्रव्यमिति प्रतिनियतव्यपदेशनिमित्तं समवाय इत्यप्यनेनापास्तं । तथा नियम करनेका कारण न हो सकनेसे समवायसम्बन्ध " संख्यावान् द्रव्य है " इस व्यपदेशका निमित्त नहीं हो सकता है। इस हेतुको साध्य बनाकर पुष्ट करते हैं कि समवायसम्बन्ध ( पक्ष ) भिन्न पडे हुये पदार्थोंको नियत स्थल पदार्थमें ही निष्ठित कर देनेके प्रतिनियमका कारण नहीं है (साध्य) क्योंकि प्रतियोगिता और अनुयोगिता सम्बन्ध से समवायवाले सम्पूर्ण द्रव्य आदि पांचों में साधारणरूपसे ठहरता हुआ वह समवाय एकरूप है ( हेतु ) जो एकरूप है वह न्यारे पदार्थोंका न्यारे न्यारे अकिरणोंमें धरनेका नियामक नहीं हो सकता है । सामान्य ( जाति ) गुण, कर्म, आदि से सहित घट, पट, आदि पदार्थोंमें द्रव्य हैं, इस प्रकार प्रतिनियत हुये व्यवहारका कारण समवाय हो जाता है । अथवा द्रव्य और गुण या द्रव्य और कर्म एवं सामान्य और सामान्यवान् इत्यादिकोंके सम्बन्ध व्यवहारका निमित्त समवाय है। यह वैशेषिकोंका कहना भी इस उक्त कथनसे खण्डित हो जाता है । केनचिददशेन कचिनियमहेतुः समवाय इति चेन्न, तस्य सावयवत्वप्रसक्तेः स्वसिद्धां तविरोधात् । निरंश एवं समवायस्तथा शक्तिविशेषान्नियम हेतुरित्ययुक्तं, अनुमानविरोधात् ।

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