Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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___ तत्त्वार्थकोकवार्तिक
विशेषणभाव सम्बन्ध भी प्रतिनियत नहीं सम्भवता है। जिससे कि कहीं ही समवायका नियम करानेके हेतुपनको व्यवस्था करनेमें नियामक हो जाता। अर्थात्-भिन्न पडे हुये विशेष्यविशेषण सम्बन्धके द्वारा न्यारे पडे हुये समवायकी नियत व्यवस्था नहीं है और सर्वथा न्यारे समवाय द्वारा ज्ञान आत्मा, संख्या संख्यावान् , आदिके संयोजनकी नियति नहीं बन सकती है।
सन्नप्ययं ततस्तावन्नाभिन्नः खमतक्षतेः । भिन्नश्चेत्सं स्वसंबंधिसंबंधोन्योस्य कल्पनात् ॥ ३५॥ सोपि तद्भिन्नरूपश्चेदनवस्थोपवर्णिता ।
तादात्म्यपरिणामस्य समवायस्य तु स्थितिः ॥ ३६ ॥ • अस्तुपरतोषन्यायसे यह विशेष्यविशेषणभाव सद्रूप भी माना जाय तो भी उन अपने सम्बन्धियोंसे अभिन्न ही होता हुआ तो न माना जायगा। क्योंकि ऐसा माननेपर सम्बन्धिओंसे सम्बधके भेदका आग्रह करनेवाले वैशेषिकोंको अपने मतकी क्षति होना सहना पडेगा। यदि अपने सम्बन्धियोंसे विशेष्यविशेषणभाव-सम्बन्ध भिन्न माना जायगा तो पुनः इस विशेष्यविशेषणभावका अपने सम्बन्धियोंके साथ योजना करनेवाला दूसरा न्यारा सम्बन्ध कल्पना करना पडेगा और वह भी सम्बन्ध अपने उन सम्बन्धियोंसे भिन्न स्वरूप होगा। अतः उसकी अपने सम्बन्धियोंके साथ योजना करानेवाला तीसरा सम्बन्ध मानना पडेगा। न्यारा पडा हुआ सम्बन्ध तो दो सम्बन्धिओंको जोड नहीं सकता है। अतः उसका उनके साथ सम्बन्ध मानो और तीसरा भी अपने सम्बन्धियोंमें न्यारा होता हुआ, चौथे सम्बन्धसे सम्बन्धित होकर वर्तेगा । इस ढंगसे अनवस्था दोष वैशेषिकोंके ऊपर कह दिया जायगा। जैन सिद्धान्तके अनुसार तो तादात्म्य परिणामरूप समवायकी स्थिति मानी गयी है, यह निर्दोष पन्या है । अतः सर्वथा भेदमें होनेवाले दोष कथंचित् तदात्मकपनेमें लागू नहीं होते हैं।
___ सुदरमपि गत्वा विशेषणविशेष्यभावस्य स्वसंबंधिभ्यां कथंचिदनन्यत्वोपगमे समवायस्य स्वसमवायिभ्यामन्यत्वसिद्धेः सिद्धः कथंचित्तादात्म्यपरिणामः समवाय इति संख्या तद्वतः कथंचिदन्या ।
उन भिन्न सम्बन्धोंको अपने अपने सम्बन्धियोंमें जोडनेके लिये तीसरे, चौथे, सौमें सहस्रमें आदि सम्बन्धोंकी कल्पना करते हुये बहुत दूर भी जाकर समवायको दोमें ठहरानेके योजक विशेष्य विशेषणभाव सम्बन्धका यदि अपने सम्बन्धियोंके साथ कथांचत् अभेद स्वीकार किया जायगा, तब तो उसीके समान समवाय सम्बन्धका भी अपने आधार समवायियों के साथ अभिन्नपना सिद्ध होजाता है। इस कारण सम्बन्धियोंका कथंचित् तदात्मकपन रूपसे परिणमन होना ही समवाय सम्बन्ध सिद्ध हुआ। इस कारण संख्या उस संख्याविशिष्ट पदार्थसे कथंचित् भिन्न है, कथंचित् अभिन्न है।