Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 639
________________ ६२६ तस्वार्थ लोकवार्तिक पकी कोई भी प्रकृष्टबाधा नहीं आती है। निश्चय नयसे हम जैन भी क्षेत्रक्षेत्रीयभात्र नहीं मानते हैं। सम्पूर्ण पदार्थ अपने अपने स्वरूप में स्थित हैं । अतः बाधामें प्रशब्दका योग सार्थक हैं । नन्वेवं राज्ञः कुरुक्षेत्रं कारणमेव तत्र निवसनस्वभावस्य तस्य तेन जन्यमानत्वादिति चेत् किमनिष्टं, कारणविशेषस्य क्षेत्रत्वोपगमात् कारणमात्रस्य क्षेत्रत्वेऽतिप्रसंगः। हम 1 यहां बौद्ध अधिकरणमें की गयी शंकाके समान पुनः शंका उठाते हैं कि इस प्रकारका कुरुक्षेत्र तो राजाका कारण ही है। क्योंकि वहां कुरुक्षेत्र में उस राजाके निवास करनारूप स्वभावकी तिस क्षेत्र करके उत्पत्ति हुई है, अतः राजाके क्षेत्रमें आजानेपर क्षेत्रस्थित राजाकी परिणतिका उत्पादक वह क्षेत्र तो कारण है । कारणसे अतिरिक्त क्षेत्र कोई वस्तुभूत नहीं है, इस प्रकार कहने पर जैनोंको भला क्या अनिष्ट होसकता है ? यानी कोई अनिष्ट नहीं है । कारणविशेषको क्षेत्रपनसे हमने स्वीकार किया है। हां, सम्पूर्ण ही कारणोंको क्षेत्रपना होनेपर अतिप्रसंग हो जायगा भावार्थ — किसी भी पदार्थ के किसी भी स्थानपर ठहरनेसे एक न्यारा परिणाम होने लग जाता है। एक केला के वृक्षपर, हाथमें, कसैडीमें, मुखमें और पेटमें घरजानेसे न्यारी न्यारी परिणतियां हुई हैं, एक ही औषधिको शर्बत, दूध, जल, काढा आदिका भिन्न आश्रय मिलने परिणतियां होते हुये उसमें भिन्न भिन्न रोगोंका उपशम करानेकी शक्तियां अतः पदार्थके कथंचित् कारणविशेषको क्षेत्र कहना हमको अभीष्ट है । मी होकर माता अधिकरण है। ज्ञानका कारण आत्मा ज्ञानका अधिकरण कारणोंको क्षेत्र नहीं मानते हैं । यदि सभी कारणोंको क्षेत्र माना जायगा तो कुलाल, अदृष्ट, डोरा, आदि भी उसके अधिकरण बन बैठेंगे । प्रासादको बनानेवाला कारीगर हवेलीका निवासस्थान बन जायगा जो कि इष्ट नहीं है । पर भिन्न भिन्न उत्पन्न हो जाती हैं । गर्भस्थ - पुत्रका कारण भी है । किन्तु सभी घटके कारण दण्ड, प्रमाणगोचरस्यास्य नावस्तुत्वं स्वतत्त्ववत् । नानुमागोचरस्यापि वस्तुत्वं न व्यवस्थितम् ॥ ४० ॥ समीचीन ज्ञानके विषय हो रहे इस क्षेत्रको अवस्तुभूतपना नहीं है, जैसे कि अपने अभीष्ट तत्वोंको अवस्तुपन नहीं है और अनुमान प्रमाणके विषय भी हो रहे क्षेत्रको वस्तुपना व्यवस्थित न होय सो न समझना अर्थात्-प्रमाणोंसे जान लिया गया क्षेत्र पारमार्थिक है । कल्पित या अवस्तु नहीं । न वास्तवं क्षेत्रमापेक्षिकत्वात् स्थौल्यादिवदित्ययुक्तं, तस्य प्रमाणगोचरत्वात् स्वतवत् । न ह्यापेक्षिकमममाणगोचरः सुखनीलेतरादेः प्रमाणविषयत्वसिद्धेः । संविन्मात्रवादिनस्तस्यापि तदविषयत्वमिति चेन्न तस्या निरस्तत्वात् । निवासस्थानरूप क्षेत्र ( पक्ष ) वस्तुभूत नहीं है ( साध्य ) क्योंकि वह क्षेत्र अपेक्षासे कल्पित कर लिया जाता है, जैसे कि मोटापन, पतलापन, दूरपन, नगीचपन, उरलीपार, परली पार :

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