Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 623
________________ ६१० तत्वार्थ छोकवार्तिके प्रतिक्षणविनाशादि बहिरंतर्यथास्थितेः । स्वावृत्यपायवैचित्र्याद्बोधवैचित्र्यनिष्ठितेः ॥ २० ॥ 1 सो यह प्रसिद्ध हो रहीं एकत्व द्वित्व, आदिक संख्यायें सम्पूर्ण अर्थोंमें वास्तविक रूपसे विद्यमान हो रहीं भी किसी विशिष्ट ज्ञानरूप कारणके वश अपना निर्णय कराती हैं। जैसे कि बहिरंग और अंतरंग सभी पदार्थोंमें आप बौद्धोंके मन्तव्य अनुसार प्रत्येक क्षण में नष्ट होजानापनवर्तमान ही है । फिर भी घट, पट, दुःख, दरिद्रोंकी अभिलाषा आदि पदार्थोंमें स्थित हो रहा, क्षणिकपना विशिष्ट ज्ञानसे ही जाना जाता है। क्योंकि ज्ञानके अपने नाशक विचित्रतासे ज्ञानकी विचित्रता होना प्रतिष्ठित हो रहा है। प्रत्येक में अनेक संख्यायें विद्यमान रहती हैं । किन्तु उनका जान लेना विशिष्ट क्षयोपशमसे होने1 वाले ज्ञानकी अपेक्षा रखता है । अतः ज्ञानविशेष न होनेके कारण किसी मन्दमतीको संख्याका ज्ञान न होय तो हम क्या करें ? ज्ञानका दोष वस्तुभूत संख्याके सिर क्यों मढा जाता है । आवरण कर्मोंके क्षयोपशमरूप भावार्थ- सम्पूर्ण पदार्थोंमेंसे न हि प्रमेयस्य सत्चैव प्रमातुर्निश्वये हेतुः सर्वस्य सर्वदा सर्वनिश्चयप्रसंगात् । नापींद्रियादिसामग्रीमात्रं व्यभिचारात् । स्वावरणविगमाभावे तत्सद्भावेपि प्रतिक्षणविनाशादिषु बहिरंतश्च निश्चयानुत्पत्तेः, स्वावरणविगमविशेषवैचित्र्यादेव निश्चयवैचित्र्यसिद्धेरन्यथानुपपत्तेः । तथा सति नियतमेकत्वाद्यशेषं संख्या सर्वेष्वर्थेषु विद्यमानापि निश्चयकारणस्य क्षयोपशमलक्षणस्याभावे निश्रयं न जनयति तद्भाव एव कस्यचित्तन्निश्चयात् । जगत् प्रमेय पदार्थोंका विद्यमान होनापन ही सर्वज्ञसे अतिरिक्त प्रमाताओंके निश्चय करादेनेमें कारण नहीं है । यों तो संपूर्ण छद्मस्थोंको सदा ही सम्पूर्ण विद्यमान पदार्थोंके निश्चय होंनेका प्रसंग हो जायगा तथा केवल इन्द्रियप्रकाश, मन, योग्यदेश, अवस्थिति, आदि सामग्री भी आत्माको चाहे जिस विद्यमान, पदार्थके ज्ञान करानेमें कारण नहीं है । क्योंकि इसमें व्यभिचार 1 दोष है । कचित् इन्द्रियादि सामग्री के होनेपर भी सूक्ष्म आदि विद्यमान पदार्थोंका ज्ञान नहीं हो पाता है । तथा अन्यत्र क्षयोपशम हो जानेपर इन्द्रिय आदिकके विना भी विप्रकृष्ट पदार्थोंका ज्ञान हो जाता है । यह अन्वयव्यभिचार और व्यतिरेकव्यभिचार हुआ। हां, अपने ज्ञानके आवरण का अपगम हुये विना उन इन्द्रिय आदिके विद्यमान होनेपर भी प्रत्येक क्षणमें विनाश होजाना आदिक बहिरंग, अन्तरंग, पदार्थोंमें निश्चय होना नहीं बनता है अथवा घट आदि बहिरंग और सुख आदि अन्तरंग पदार्थोंके प्रतिक्षणवर्त्ती विनाश होने, असाधारणपन आदि में ज्ञान नहीं हो पाता है। अतः अपने अपने आवरण कर्मोंके विशेष क्षयोपशमकी विचित्रतासे ही निश्चय होने की विचित्रायें सिद्ध होरहीं हैं। अन्यथा यानी क्षयोपशमकी विशेषताको माने विना किसी के मन्दज्ञप्ति, अन्य मन्दतर, मन्दतम या तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतमंज्ञान होनेकी अनेक जातीयता

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