Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सवार्यकोकवातिक
कारो वास्तव एवेति चेत् तत एव संख्या वास्तवी किं न स्यात् । नहि सा तत्र नावभासते, तदवभासाभावात् कस्यचित्तदक्षव्यापारानन्तरं तदनिश्चयात् तद्विज्ञाने न तस्याः पतिभासनमिति चेत्, ततएव पीतायाकारस्य तत्र तन्माभूत् ।। . बौद्ध कहते हैं कि थोडीसी निर्विकल्पकज्ञानकी मित्तिको पाकर मिथ्यावासनाओंके वश अण्ट, सण्ट, अनेक अवस्तुभूत पदार्थोके विकल्प ज्ञान हो जाया करते हैं। प्रकृतमें भी उस संख्याकी अमिलाषाषाके विकल्पमें अथवा शद्वयोजनापूर्वक हुये विकल्पमें वासना लगरही थी। उससे अवस्तुभूतसंख्याका विकल्पज्ञान उत्पन्न हो जाना युक्त ही है । ग्रन्थकार कहते हैं कि ऐसा कहोगे तब तो हमारा जैनोंका यह आक्षेप है कि तिस ही झूठी वासनाओंके वशसे पति, नील, आदिका विकल्पज्ञान भी उत्पन्न हो जाओ। इस प्रकार स्वलक्षण अर्थोंमें आपका माना गया पीत आदिक आकार वास्तविक न होसकेगा जैसे कि पदार्थोंमें संख्या वास्तविक आप नहीं मान रहे हैं । इस ढंगसे पीत आदिक आकार भी 'निःस्वरूप हो जावेंगे अथवा पीत, नील, आदि आकारोंसे रहित वह स्वलक्षण निःस्वरूप हो जायगा । जो कि आप बौद्धोंको इष्ट नहीं है। इसपर बौद्ध यदि यों कहें कि इन्द्रियोंसे जन्य सत्यज्ञानमें प्रकाशित होनेके कारण पीत, नील, आदि आकार वास्तविक ही हैं, ऐसा कहनेपर तो उसी सत्य इन्द्रियजन्य ज्ञानमें प्रकाश रही होनेके कारण संख्या भी वस्तुभूत क्यों न हो जावेगी। वह संख्या उस सत्य इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षमें नहीं प्रकाश रही है, सो नहीं समझना । अन्यथा बालगोपालमें प्रसिद्ध हो रहे उस संख्याके प्रतिभासंका अभाव हो जावेगा। फिर भी बौद्ध यदि यों कहें कि किसी किसी पुरुषके इन्द्रिय व्यापारके अव्यवहित उत्तरकालमें संख्याका निश्चय नहीं हो पाता है। दूरसे वृक्ष या ताराओंके दीख जानेपर भी उनकी संख्याका निर्णय नहीं हो पाता है । इस कारण उस इन्द्रियजन्य ज्ञानमें उस संख्याका प्रतिभास होना नहीं माना जाता है, ऐसा कहनेपर तो हम जैन कहते हैं कि तिस ही कारण यानी किसी किसी भोले मनुष्यको इन्द्रियव्यापारके पीछे झटिति घोडे, बैल, आदिमें पीत आदिकका निश्चय नहीं होने पाता है । अतः उन इन्द्रियजन्य ज्ञानोंमें वह पीत आदिकका प्रकाश भी मत होओ। जो पीत आदिक आकारोंको वस्तुभूत माना जायगा तो पदार्थोकी संख्या भी वस्तुभूत हो जायगी। कोई रोकनेवाला नहीं है। .. यदि पुनरभ्यासादिसाकल्ये सर्वस्याक्षव्यापारानंतरं पीतायाकारेषु निश्चयोत्पत्तेस्तवेदने तत्मतिभासनमिति मतं तदा संख्याप्रतिभासनमपि तत एवानुमन्यतां । नहि तदभ्यासादिप्रत्ययसाकल्ये सर्वस्याक्षव्यापाराभिश्चयः संख्यायामसिद्ध इति कश्चित् पीताधाकाराद्विशेषः। .... यदि फिर बौद्धोंका यह मन्तव्य होय कि अनेक वार प्रवृत्ति होचुकना रूप अभ्यास और प्रकरण आदि कारणोंकी सम्पूर्णता होनेपर भोले, भद्र, चतुर, आदि सभी जीवोंके इन्द्रिय व्यापारके