Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः ।
बौद्ध यदि यों कहें कि इन्द्रियजन्य ज्ञान तो विकल्पोंसे रहित होकर निर्विकल्पक है। अतः विकल्पज्ञान इन्द्रियजन्य नहीं है । ऐसी दशामें हमारी ओरसे दिये हुये बाधक अनुमान प्रमाणका हेतु व्यभिचारी नहीं है । हेतुके न रहते हुये साध्यके रह जानेपर व्यभिचार होता है किन्तु इन्द्रियजन्य ज्ञानमें तो विकल्पपना हेतु नहीं ठहरा है । ऐसी दशामें साध्य भी न रहो, कोई क्षति नहीं है। इसपर आचार्य कहते हैं कि सो तो न कहना । क्योंकि एकदेशसे विशद जाननेवाला वह इन्द्रियजन्य ज्ञान विकल्पस्वरूप है । इसकी आगे भविष्यग्रन्थमें व्यवस्था करदी जायगी। विश्वास रखिये । तिस कारण विशदरूपसे प्रकाशित हो रहे स्थूलपन आदि दृष्टान्तमें अस्पष्टावभासी पन वह हेतुका सत्यन्तदल नहीं ठहर पाया। तिस कारण बौद्धोंका दिया हुआ दृष्टान्त हेतु विफल ही है।
सर्वत्र संख्यायां च तन्नास्तीति पक्षाव्यापको हेतुर्वनस्पतिचैतन्ये स्वापवत् । न हि स्पष्टावभासिष्वर्थेष्वस्पष्टावभासित्वं संख्यायाः प्रसिद्धं । न च तत्र स्पष्टसंख्यानुभवाभावे तदनुसारी विकल्पः पाश्चात्यो युक्तः पीतानुभवाभावे पीतविकल्पवत् ।
दूसरी बात यह है कि संख्याको नीरूपत्व सिद्ध करनेमें दिया गया वह विश्नदप्रकाशित नही होते हुए आपेक्षिकपना हेतु सम्पूर्ण संख्याओंमें नहीं रहता है । इस कारण पक्षमें व्यापकरूपसे न ठहरनेवाला होता हुआ भागासिद्ध है। जैसे कि वनस्पतियोंके चेतनपना सिद्ध करनेमें दिया गया स्वाप ( शयन ) हेतु, सर्व वनस्पतियोंमें न वर्त्तनेके कारण भागासिद्ध है। कतिपय वनस्पतियां सोती हैं और अनेक वनस्पतियां निद्राकर्मका उदय होते हुए भी अस्मदादिकोंके स्थूलज्ञानसे जानने योग्य स्वरूपको नहीं प्राप्त होती हैं। अतः " ये वनस्पतियां चैतन्ययुक्त हैं, स्वाप होनेसे " इस अनुमानका हेतु भागासिद्ध है, वैसे ही सभी दो, चार, दस, आदि संख्याओंमें अस्पष्ट प्रतिभासीपन नहीं है। स्पष्टरूपसे प्रकाशित हो रहे घोडे हाथी, आदि पदार्थोमें रहनेवाली दो, चार, छह आदि संख्याका अस्पष्ट प्रकाशितपना प्रसिद्ध नहीं है। अर्थात्-वहां संख्या स्पष्टरूपसे जानी जारही है। यदि वहां स्पष्टरूपसे संख्याका अनुभव होनेका अभाव माना जायगा तो उस अनुभवके अनुसार होनेवाला पिछला विकल्पज्ञान उत्पन होना भला कैसे युक्त होगा, जैसे कि पीतका स्पष्ट अनुभव किये विना पीछेसे पीतका विकल्पज्ञान नहीं हो पाता है। भावार्थ-बौद्धोंने निर्विकल्पक प्रत्यक्षज्ञानके अनुसार पीछे विकल्पज्ञानोंकी प्रवृत्तिहोना माना है जिसको स्पष्टरूपसे प्रत्यक्ष जान लेता है उसी विषयमें विकल्पज्ञान पीछेसे प्रवर्तता है। पीछेसे संख्याका विकल्पज्ञान होना बौद्धोंने माना है। अतः पूर्वमें संख्याका स्पष्टज्ञान अवश्य हो चुका कहना ही पड़ेगा।
तदभिलापविकल्पे वासना तस्मायुक्त एवेति चेत् तर्हि पीतादिविकल्पोपि तत एवेति न पीताद्याकारोऽवास्तवोर्येषु संख्यावदिति नीरूपत्वं । सत्येंद्रियजानेवमासनात् पतिाया