Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
संवेदनाद्वैतवादी यदि कार्यकारण भावको नहीं स्वीकार करेंगे उनका माना गया स्वसंवे
दन सत् और कारणरहित होता हुआ नित्य हो जायगा । ऐसी व्याप्ति बनी हुई है कि " सदकारणवन्नित्यं जो , होता हुआ अपने जनक कारणोंसे रहित है वह नित्य है । सत् संवेदनका कारण
"
सत्
जब बौद्ध मान नहीं रहे हैं तो वह अवश्य नित्य हो जायगा । अन्यथा यानी कार्यकारणभाव नहीं मानते हुये सत् भी न माना जायगा तो आकाशके कमल, वन्ध्यापुत्र, आदिके समान प्रमारहित यानी प्रमाका विषय न होता हुआ असत् हो जायगा। यहां नित्यके लक्षण में सत् विशेषण तो प्रागभावमें अतिव्याप्तिके निवारणार्थ दिया है और घट, पट, आदि में अति प्रसंगको हटाने के लिये विशेष्य दल अकारणवत् रखा है ।
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सर्वथैवा फलत्वाच्च तस्याः सिद्धयेन्न वस्तुता । सफलत्वे पुनः सिद्धा कार्यकारणतांजसा ॥ १० ॥
प्रत्येक द्रव्य अनादिसे अनन्तकालतक परिणमन करता है । पूर्ववर्त्ती पर्याय उपादान कारण है और उत्तरवर्त्ती पर्याय उपादेय है । वह उत्तरकालवर्त्ती पर्याय भी तदुत्तरकालवर्त्ती पर्यायको उत्पन्न कर नष्ट हो जाती है। यह उत्पाद, व्यय, धौव्यका क्रम अनाद्यनन्त है । तभी वस्तुपना व्यवस्थित हो रहा है, अन्यथा नहीं। यहां प्रकरण में संवेदनका कारण न माननेपर दोष कहा जा चुका है। अब संवेदनका उत्तरवर्ती कार्य न माननेपर आचार्य दोष देते हैं कि और उस संवेदनको सभी प्रकार यदि फलरहित माना जायगा उससे तो उस संवेदनका वस्तुपना सिद्ध नहीं होवेगा । जो अर्थ अक्रियाको करनेवाले हैं वे वस्तुभूत पदार्थ माने गये हैं। यदि संवेदनको फलसहितपना स्वीकार किया जायगा तब तो फिर बडी शीघ्रतासे कार्यकारणभाव सिद्ध हो जाता है । उत्तरवर्त्ती फलको उत्पन्न करना ही तो संवेदनका कार्य है ।
न संविदारणा नापि सकारणा नाफला नापि सफला यतोऽयं दोषः । किं तर्हि ? संवित्संविदेवेति चेत्, नैवं परमत्रह्मसिद्धेः संविन्मात्रस्य सर्वथाप्यसिद्धेः समर्थनात् ।
बौद्ध कहते हैं कि हमारी मानी गयी संवित्ति न तो कारणोंसे रहित है और अपने जनक कारणों से सहित भी नहीं है तथा वह संवित्ति न तो फलरहित है और वह फलसहित भी नहीं है, जिससे कि ये उक्त दोष हमारे ऊपर लागू हो जाय। तो संवित्ति क्या है ? कैसी है ? इस प्रश्न के उत्तर में हम बौद्धों का यह कहना है कि संविद् तो विचारी संविद् ही है । जैसे कि स्वानुभूति स्वानुभूत ही है। अब आचार्य कहते हैं कि यह बौद्धोंका कहना तो उचित नहीं है। क्योंकि इस प्रकार तो परमब्रह्म की सिद्धि हो जावेगी, आप बौद्धोंके समान वे ब्रह्माद्वैतवादी भी ब्रह्म ब्रह्म ही है, ऐसा कहकर सब दोषों को हटाने का प्रयत्न कर सकते हैं। आपके केवल शुद्ध संवेदनकी सब प्रकारोंसे भी सिद्धि न होनेका समर्थन कर दिया गया है ।