Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यश्लोकवातिक सत्त्वमपि निर्दिश्यमानं निर्देशवचनेन विषयीक्रियमाणं न तस्याविषय इति चेत्र, स्वामित्वादि वचनविषयसत्त्वस्य तदविषयत्वात् । किं सदिति हि प्रश्ने स्यादुत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सदिति निर्देशवचनं, न पुनः कस्य, सत् केन, कस्मिन् , कियचिरं, किं विधानमिति प्रश्नवतरति तत्र स्वामित्वादिवचनानामेवावतारात् । नैवं, सद्वचनं किमित्यनुयोग एव प्रवर्तते सर्वथा सानुयोगेषु तस्य प्रवृत्तेः।
पुनः शंकाकार कहता है कि शब्दके द्वारा निर्देश की गयी सत्ता भी निर्देश कथन करके विषय की जा रही है । अतः उस निर्देशवचनकी अविषय नहीं है । अर्थात्-जिस ढंगसे निर्देश वचनका व्यापक सत् कह दिया गया है, उसी प्रकार सत्संख्या, आदिका भी निर्देश हो जानेके कारण निर्देश कथन भी सत्तासे महाविषयवाला होकर व्यापक हो सकता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार तो न कहना। क्योंकि स्वामित्व, साधन आदि वचनको विषय करनेवाली सत्ता उस निर्देश वचनका व्याप्य होकर विषय नहीं है । अतः सत्ताका पेट बडा है। सत् क्या है । ऐसा प्रश्न करनेपर उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे युक्त सत् है, यह निर्देश वचन ही उत्तर हो सकेगा। किन्तु फिर किस स्वामीका सत् है ? किस साधन करके सत् बनाया जाता है ? किस अधिकरणमें कितनी देर तक, और कितने प्रकारका सत् है ? इस प्रकार प्रश्न उतरनेपर तो फिर सत् ऐसा निर्देश वचनरूप उत्तर नहीं उतरता है । वहां तो उत्तरमें स्वामिपन, साधन, आदिके वचनोंका ही अवतार होगा, तभी तो निर्देश आदि छःप्ररूपण ये हैं । इस प्रकार क्या है ? केवल ऐसा प्रश्न होनेपर ही सत्वचन नहीं प्रवर्त्तता है। प्रत्युत सभी प्रकार स्वामित्व, आदिके सभी प्रश्नोंमें उस सद्वचनकी प्रवृत्ति है। अतः निर्देशवचनसे सत्प्ररूपणा व्यापक है, तभी तो दूसरे सूत्र द्वारा न्यारी कही गयी है।
संख्यादिवचनविषये सद्वचनस्यामवृत्तेर्न सर्वविषयत्वमिति चेन, तस्यासत्त्वप्रसंगात् । न ह्यसंत एव संख्यादयः संख्यादिवचनैर्विषयीक्रियते तेषामसत्त्वप्रसंगात् । सतां तेषां विषयकिरणे सिद्धं, सद्वचनेनापि विषयीकरणमिति तदेव सर्वविषयत्वेन महाविषयं ततो न पुनरुक्तम् ।
निर्देश करने योग्य संख्या, क्षेत्र, आदिके वचन विषयोंमें सत् वचनकी प्रवृत्ति न होनेसे संख्या ( सत्ता ) को सर्व विषयपना नहीं बन पाता है, तभी तो परस्परमें एक दूसरेसे न्यारी होती हुई सत्, संख्या, आदि आठ प्ररूपणायें बन सकेंगी, यह तो न कहना। क्योंकि संख्या आदिक वचनोंके विषयोंमें भी सत्पना व्याप रहा है । अन्यथा उस संख्या आदिके वचनोंके विषयको असत्पनेका प्रसंग हो जायगा । असतस्वरूप ही होते हुये संख्या आदिक तो संख्या, क्षेत्र, आदिको कहनेवाले वचनों करके नहीं विषय किये जाते हैं । यों तो उन संख्या, आदिकोंके खरविषाण समान असत्पनेका प्रसंग होगा। संख्या आदिके वचनों करके उन सद्भूत ही संख्या आदिकोंका विषय किया जाना माननेपर तो पहिले विषयको प्राप्त नहीं हुयेका भी सत् वचनकरके