Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्वार्थचिन्तामणिः
पहिले निर्देशस्वामित्वसाधन आदि सूत्रमें कहे गये निर्देशके कथनसे ही पदार्थोकी सत्ता सिद्ध हो जाती है तो फिर इस सूत्रमें सत्का वचन करना पुनरुक्त है, इस प्रकार किसीका कहना तो साररहित है । क्योंकि शब्दके द्वारा कहे जाने योग्य द्रव्य, गुण, क्रिया, संयोगी, समवायी, यदृच्छा आदिको विषय करनेवाला ही निर्देश वचन है और इस सूत्रमें सत्प्ररूपणका वचन तो सम्पूर्ण पदायोकी केवल सत्ताको विषय करनेवाला है। अतः भिन्न भिन्न विषय होनेके कारण उस निर्देश वचनसे उस सत् वचनको पुनरुक्तपना असिद्ध है। असाधारण धर्मोके आधार होते हुए कतिपय जीव आदिक पदार्थ जैसे प्रतिकूल पक्षकी व्यावृत्ति करके निर्देश कथनके विषय हैं, तिस प्रकार असाधारणधर्मके आधार होते हुये वे सत् कथनके विषय नहीं है। क्योंकि सम्पूर्ण द्रव्य और पर्यायोंमें साधारण रूपसे रहनेवाले तिस सद्वचन करके सामान्यसत्ताका कथन किया जाता है । यानी निर्देशका विशेष विषय है और सत्का विषय सामान्य है, यही दोनोंका भेद है । इतना क्या थोडा अन्तर है ।। ____ तस्यापि स्वप्रतिपक्षासत्त्वव्यवच्छेदेन प्रवृत्तेरसाधारणविषयत्वमेवेति चेन्न, असत्वस्य सदंतररूपत्वेन सद्वचनादव्यवच्छेदात् । भवदपि सामर्थ्यानास्तित्वसाधनं सद्वचनं स्वपतिपक्षव्यवच्छेदेन सन्मात्रगोचरं निर्देशवचनाद्भिनविषयमेव ततो महाविषयत्वात् । निर्दिश्यमानवस्तुविषयं हि निर्देशवचनं न स्वामित्वादिविषयं, सद्वचनं पुनः सर्वविषयमिति महाविषयत्वं ।
यहां यदि कोई यों शंका करे कि उस सत् वचनकी भी अपने प्रतिपक्षी असत्ताकी व्यावृत्ति करके प्रवृत्ति हो रही है, अतः वह भी सम्पूर्ण सत् , असत् , पदार्थोंमें नहीं प्रवृत्त होता हुआ असाधारण सत्पदार्थोका ही विषय है। आचार्य कहते हैं कि सो यह तो न कहना । क्योंकि असत्ताको हम तुच्छ अभावरूप पदार्थ नहीं मानते हैं। किन्तु एककी असत्ता दूसरेकी सत्ता रूप है। रीता भूमिभाग ही घटकी असत्ता है । प्रकरणमें प्राप्त हुये सत् पदार्थसे रहित और दूसरे सत्स्वरूपपने कर व्यवस्थित हो रहे असत्त्वका सत्वचनसे व्यवच्छेद नहीं होता है । अतः सत्ता वस्तुभूत सत् , असत् पदार्थोंमें रहने वाली होती हुई साधारण है । असाधारण विषयवाली नहीं है । दूसरी बात यह है कि अर्थापत्ति प्रमाणकी सामर्थ्यसे प्रतिपक्षके नास्तित्वको साधनेवाला और अपने प्रतिपक्षीके व्यवच्छेद करके केवल सत्ताको विषय करनेवाला होता हुआ भी सत्ताका वचन निर्देशवचनसे भिन्न विषयवाला ही है। क्योंकि सम्पूर्ण सद्भूत पदार्थोके अनन्तानन्तवें भाग रूप कतिपय मध्यम संख्यात रूप संख्याको धारनेवाले पदार्थोको ही कहनेवाले उस निर्देशवचनसे यह सत्प्ररूपण महान् विषयवाला है । देखो ! निर्देश कथन तो शद्वों द्वारा कथन किये गये वस्तुको ही विषय करता है। तभी तो परस्परमें भिन्न होती हुई पहिले सूत्रमें छह प्ररूपणायें की गयी है और यह सत् वचन तो फ़िर सम्पूर्ण ही निर्दिश्य, स्वामित्व, साधन, आदि सब ही को विषय करता है। इस कारण इसका विषय महान् है । समझे !!!