Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
विषय किया जाना ( अभूततद्भावे विप्रत्ययः ) सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार वह सत्प्ररूपण ही सबको विषय करनेवाला होनेके कारण महाविषयवाला है । तिस कारण निर्देश कह चुकनपर भी आवश्यकतावश सत् कहा गया है। पुनरुक्त दोषका प्रसंग नहीं आता है।
गत्यादिमार्गणास्थानैः प्रपंचेन निरूपणम् । मिथ्यादृष्ट्यादिविख्यातगुणस्थानात्मकात्मनः॥ १४ ।।
गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व, आहार इन चौदह मार्गणा स्थानोंकरके मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यड्मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्त कषाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवली, अयोगकेवली इन प्रसिद्ध हुये चौदह गुणस्थानस्वरूप जीवका विस्तार करके प्ररूपण कर लेना चाहिये ।
कृतमन्यत्र प्रतिपत्तव्यमिति वाक्यशेषः । सोपस्कारत्वात् वार्तिकस्य सूत्रवत् ।
दूसरे धवलसिद्धान्त, सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रन्थोंमें तथा स्वकीय विद्यानन्द महोदयमें सामान्य और विशेषरूपसे विस्तारके साथ किया गया प्ररूपण वहांसे समझना चाहिये । इतना वाक्यशेष रह गया था, सो उपर्युक्त चौदहवी वार्तिकका अर्थ करते समय जोड लेना। क्योंकि सूत्रोंके समान वार्तिक भी अपना व्यक्त अर्थ करानेके लिये यथायोग्य परिशिष्ट ऊपरके वाक्योंका आकर्षण कर लेते हैं । अन्यथा लघुशरीरवाले वार्तिकसे इतना गम्भीर अर्थ निकालना दुःसाध्य है । यहांतक सत्का व्याख्यान हो चुका है।
संख्या संख्यावतो भिन्ना न काचिदिति केचन। संख्यासंप्रत्ययस्तेषां निरालंबाः प्रसज्यते ॥१५॥
दूसरी संख्याकी प्ररूपणाका प्रारम्भ होनेपर प्रथम ही इस प्रकार कोई बौद्ध कह रहे है कि संख्यावान् पदार्थसे संख्या कोई मिन्न नहीं है । इसपर आचार्योका कहना है कि उन बौद्धोंके यहां संख्याके समीचीन ज्ञानको आलम्बन रहितपनेका प्रसंग होता है । अर्थात् आकाश कुसुमके ज्ञान समान संख्याका ज्ञान विषयरहित हो जायगा। अपने असद्भूत विषयको नहीं जान पायेगा।
नैवसंख्यासंपत्ययोस्तींद्रियजः तत्रैकस्मिन् स्वलक्षणप्रतिभासमाने स्पष्टपेकत्वसंख्यायाः प्रतिभासनाभावात् । नहीदं स्वलक्षणपियमेकत्वसंख्येति प्रतिभासद्वयमनुभवामः । वापि गिजोऽयं संख्यासंपत्ययः संख्याप्रतिबदलिंगस्य प्रत्यक्षसिद्धस्याभावात् । ततएष
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