Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तवार्थचिन्तामणिः
संख्यासे बाहर यह ज्ञान प्रतीत होरहा है अथवा परिगणित पदार्थोंमें प्रतिमियत हो रही और संख्यावान्से कथंचित् बहिर्भूत संख्याकी प्रतीति हो रही है । लोक इसका साक्षी है । कोई मिथ्या वासनाओं द्वारा मनगढन्त नहीं है। ।
वासनामात्रहेतुश्चेत्सा मिथ्याकल्पनात्मिका । वस्तुसापेक्षिकत्वेन स्थविष्ठत्वादिधर्मवत् ॥ १६ ॥ नीरूपेषु शशाश्वादिविषाणेष्वपि किं न सा । . तत्कल्पनासु सत्यासु खरूपेण तु सांजसा ॥ १७ ॥
जैसे कि बेरकी अपेक्षा बिल्व (बेल) स्थूल है और बिल्वसे नारियल मोटा है तथा अंगुलीसे लेखनी और लेखनीसे बेत लम्बा है, इस प्रकार ये स्थूलपन, उम्बापन, आदि धर्म जैसे अन्य वस्तुओंकी अपेक्षासहितवाले होनेके कारण मिथ्या कल्पनास्वरूप हैं, वैसे ही दो, तीन, चार आदि संख्याओंके ज्ञान भी केवल झूठी वासनाओंको कारण मानकर उत्पन्न हुये हैं। अतः मिथ्या कल्पना स्वरूप हैं, वास्तविक नहीं हैं । यदि वस्तुभूत होते तो दूसरोंकी अपेक्षा नहीं करते, जैसे रूप, रस, सुख आदि पदार्थ किसीकी अपेक्षा नहीं करते हैं। किन्तु द्वित्व, त्रित्व, आदिक संख्यायें तो अन्योंकी अपेक्षा रखती हैं। जो अन्यापेक्ष है वह मनगढन्त है। परमार्थभूत नहीं है, इस प्रकार बौद्धोंके कहने पर तो हम जैन कहते हैं कि यों तो स्वरूपरहित शशश्रृंग या अश्वश्रृंग आदिमें भी वह मिथ्याकल्पना स्वरूप संख्या क्यों न होजावेगी। यदि यों कहो कि उनकी कल्पनाओंमें है ही, तब तो वस्तुभूत. कल्पनाओंमें स्वरूपसे मान ली गयी संख्या स्पष्ट ही वास्तविक रूपसहित समझी जायगी मनगढन्त नहीं।
___ बहिर्वस्तुषु संख्याध्यवसीयमाना वासनामात्रहेतुका मिथ्याकल्पनात्मिकैवापेक्षिकत्वादिधर्मवदिति चेन्न, नीरूपेषु शशादिविषाणेष्वपि तत्प्रसंगात् । तत्कल्पना स्वस्त्येवेति चेत् तर्हि ताः कल्पनाः स्वरूपेण सत्याः किंवा न सत्याः ? न तावदुत्तरः पक्षः स्वमतविरोधात् । कथमिदानी स्वरूपेण सत्यासु कल्पनासु संख्या परमार्थतो न स्यात्, तास्वपि कल्पनांतरारोपितापेक्षिकत्वाविशेषात् बहिर्वस्तुष्विवेति चेत्, स्यादेवं यदि हि कल्पनारोपितत्वेनापेक्षिकं व्याप्तं सिध्येत् ।
घट, पट, आदि बहिरंग वस्तुओंमें निर्णीत की जा रही संख्या केवल वासनाको कारण मानकर उत्पन्न हुई है। अतः अपेक्षासे होनेवाले या व्यवहारसे यों ही गढलिये गये स्थूलत्व, परत्व, अपरत्व, सूक्ष्मत्व, आदि धर्मोके समान द्वित्व, त्रित्व संख्या भी मिथ्याकल्पना स्वरूप ही है। जैसे कि गोल चलनीके चाहे जिस छेदमें दूसरापन, वीसवांपन, सौमापन ये धर्म अपेक्षाओंसे रह जाते हैं, तैसे ही चाहे जिन पदार्थोंमें दोपना, वीसपना आदि अनियत संख्यायें अपेक्षा बुद्धिसे गढ ली जाती