Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यकोकवार्तिक
न शद्रोऽयं प्रत्यक्षानुमानमूलः। योगिप्रत्यक्षमलोऽयमिति चेन्न, तस्य तथावगंतुमशक्यत्वात् । ततोऽयं मिथ्यामत्ययो निरालम्बन एवेति केचिद, तेषां तस्य दिशाविनियमो न स्यात् । कारणरहितत्वादन्यानपेक्षणात् सर्वदा सत्त्वमसत्त्वं वा प्रसज्येत। निरालम्बनोपि समनंतरप्रत्ययनियमात् प्रतिनियतोयमिति चेन बहिःसंख्यायाः प्रतिनियतायाः प्रतीयते। .
बौद्ध अपने मन्तव्यको पुष्ट करते हैं कि भिन्न संख्याकाः समीचीन ज्ञान होना इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष तो है नहीं, क्योंकि तिस इन्द्रियजन्य एक प्रत्यक्षमें स्वलक्षणके स्पष्टरूपसे प्रतिभास हो जानेपर एकत्व संख्याका तो न्यारा प्रतिभास नहीं होता है । हम बौद्ध यह स्वलक्षणतत्त्व है और उसकी यह न्यारी एकत्व संख्या है, इस प्रकार होते हुये दो प्रतिभासोंका अनुभव नहीं कर रहे हैं, तथा न्यारी संख्याका यह समीचीन ज्ञान तो हेतुजन्य अनुमानस्वरूप भी नहीं है, यानी अनुमान प्रमाणसे भी संख्या नहीं जानी जाती है । क्योंकि संख्यारूप साध्यके साथ व्याप्तिको रखनेवाले और प्रत्यक्ष प्रमाणसे साधे गये ऐसे हेतुका अभाव है । तिस ही कारण यह संख्याका ज्ञान शाबोध ( आगम ) रूप भी नहीं है। क्योंकि प्रत्यक्ष और अनुमानको मूलकारण मानकर शादबोधकी प्रवृत्ति होती चली आरही है। किन्तु, यहां प्रत्यक्ष, अनुमानकी प्रवृत्ति होनेका निषेध किया जा चुका है। यदि कोई यों कहे कि सभी प्रत्यक्षोंको नहीं, किन्तु समाधिरूप योगको धारनेवाले सर्वज्ञके प्रत्यक्षको मूलभित्ति मानकर यह शाबोध प्रवर्तता है। अतः प्रत्यक्षमूलक होता हुआ शब्दबोध संख्याका भले प्रकार ज्ञान करलेगा। बौद्ध कहते हैं कि सो यह तो नहीं कहना। क्योंकि उस आगमका तिस प्रकार सर्वज्ञको मूल मानकर प्रवर्त्तना जाननेके लिये अशक्यता है। सभी अपने अपने आगमोंको सर्वज्ञसे प्रतिपादित हुआ मानते हैं ।किन्तु इसका निर्णय नहीं किया जासकता है । तिस कारण तीनों प्रमाणरूप न होता हुआ यह संख्याको जाननेवाला मिथ्याज्ञान अपने ज्ञेय विषयसे रहित ही है, इस प्रकार कोई सौगत कह रहे हैं। अब ग्रन्थकार कहते हैं कि उनके यहां कारणरहित होनेसे और अन्यकी नहीं अपेक्षा रखनेसे उस संख्या ज्ञानके उपदेशका विशेष नियम न हो सकेगा, अर्थात्-कहीं भी चाहे जितनी संख्याका प्रयोग किया जासकेगा। कारणरहित या अन्य निरपेक्ष होनेसे आकाशके समान या तो सदा ही सत् होजायगा अथवा खराविषाणके समान सदा असत् होजानेका ही प्रसंग होजावेगा। एक पदार्थमें दो, चार आदिका ज्ञान भी होजावेगा और दो, चार, पदार्थोको एक भी कह सकेंगे । संख्या ज्ञानके नियत रहनेकी कोई व्यवस्था न हुई । आलम्बनसे रहित ज्ञान किसी भी मिथ्याज्ञानीके चाहे जब हो सकेंगे। कोई नियामक नहीं। किन्तु यह संख्याका ज्ञान अव्यवस्थित तो नहीं है । यदि बौद्ध यों कहें कि यह संख्याको जाननेवाला ज्ञान तो निर्विषय होता हुआ भी अव्यवहित पूर्ववर्ती ज्ञान होनेके नियमसे प्रतिनियत होरहा है । अर्थात्-अनादिकालीन वासनाओंसे उत्पन होकर अव्यवहित पूर्वसमयोंमें संख्याका ज्ञान अपने उपादान कारणवश वहां ही उसी समय संख्याको जतावेगा । सर्वत्र सर्वदा. नहीं । आचार्य कहते हैं यह तो न कहना । क्योंकि प्रतिनियस