Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वासोकवार्तिके
तिस कारण सम्पूर्ण प्ररूपणाओंके आदिमें विद्वान् लोगोंको पदार्थोके सद्भावका प्ररूपण करना ही समुचित है। अन्यथा यानी वस्तुके सद्भावका निर्णय हुये विना उसके अन्यधर्मीका आकुलता रहित होकर प्रतिपादन करना भला कहां बन सकता है ! अर्थात् नहीं । सति धर्मिणि धर्माणां मीमांसा स्यात् ।
- सत्मरूपणाभावेऽर्थानां धर्मिणामसत्त्वात क संख्यादिधर्माणां प्ररूपणं मुनिश्चितं प्रवर्तते शशविषाणादिवत् । कल्पनारोपितार्थेषु तत्परूपणमिति चेत् न तेष्वपि कल्पनारोपितेन रूपेणासत्सु न तनिरूपणं युक्तमतिप्रसंगात् । सत्सु तनिरूपणे सत्प्ररूपणमेवादों प्रेक्षावतां युक्तमिति निराकुलम् ।
पदार्थोके सद्भावका निरूपण न होनेपर धर्मियोंकी सत्ता न सिद्ध होसकनेके कारण संख्या, क्षेत्र, आदि धर्मोका भले प्रकार निश्चित होकर किया गया प्रतिपादन करना भला कहां प्रवर्त्त सकता है ! जैसे कि शशके सींगों आदिकी सत्ता न होनेके कारण उन सींगोंके लम्बापन, चिकनापन, गोलाई, कठिनता आदि धर्मोका कथन नहीं हो पाता है। यदि शून्यवादी कल्पनासे आरोपे गये अर्थोमें उस सत्की प्ररूपणा होना मानेंगे सो तो ठीक नहीं। क्योंकि कल्पनासे आरोपे गये स्वरूप करके असत्रूप उन पदार्थोंमें भी उस सत्का प्ररूपण करना तो युक्त नहीं हैं । क्योंकि यों तो अतिप्रसंग होजायगा। यानी कल्पनामें प्राप्त हुये आकाशकुसुम आदि. असत् पदार्थोकी सत्ताका भी प्ररूपण होने लग जायगा और यदि कल्पनासे आरोपे गये स्वरूप करके सद्भूत हो रहे पदार्थों में यदि उस सत्ताका निरूपण करना माना जायगा, तब तो सबकी आदिमें सत्का प्ररूपण करना ही हित, अहित, विचारनेकी बुद्धिको रखनेवाले विद्वानोंको उचित है, यह निराकुल होकर सिद्ध कर दिया गया है।
निर्देशवचनादेतद्भिग्नं द्रव्यादिगोचरात् । . सन्मात्रविषयीकुर्वदर्थानस्तित्वसाधनम् ॥ १३ ॥
केवळ स्थूलद्रव्य या सदृश व्यंजनपर्यायरूप कतिपय पदार्थोको या द्रव्य, गुण, आदिको विषय करनेवाले निर्देशके वचनसे यह सम्पूर्ण वस्तुभूत अर्योकी केवल सत्ताको विषय करता हुआ अस्तित्वको साधनेवाला सत्ताका प्ररूपण न्यारा है।
निर्देशवचनात्सत्वसिद्धः सद्वचनं पुनरुक्तमित्यसारं, निर्देशवचनस्य द्रव्यादिविष यत्वात् सद्वचनस्य सन्मात्रविषयत्वात् भित्रविषयत्वेन ततस्तस्य पुनरुक्तत्वासिद्धः । न हि यथा जीवादयो साधारणधर्माधाराः प्रतिपक्षव्यवच्छेदेन निर्देशवचनस्य विषयास्तथा सदचनस्य तेन सर्वद्रव्यपर्यायसाधारणेन सत्त्वस्याभिधानात् ।