Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
निश्चयनय एवंभूतः व्यवहारनयोऽशुद्धद्रव्याथिकस्ताभ्यां निर्देष्टव्यादयो यथागममदाहर्तव्या विकलादेशात् प्रमाणतश्च सकलादेशात् । तद्यथा-। निश्चयनयादनादिपारिणामिकचैतन्यलक्षणजीवत्वपरिणतो. जीवः व्यवहारादौपशमिकादिभावचतुष्टयस्वभावः निश्चयतः स्वपरिणामस्य व्यवहारतः सर्वेषां, निश्चयनयतो जीवत्वसाधनः व्यवहारादौपशमिकादिभाव साधनश्च, निश्चयतः स्वप्रदेशाधिकरणो व्यवहारतः शरीराधधिकरणः । निश्चयतो जीवनसमयस्थितिः व्यवहारतों द्विसमयादिस्थितिरनाद्यवसानस्थिति, निश्चयतोनंतविधान एव व्यवहारतो नारकादिसंख्येयासंख्येयानंतविधानश्च ।।
निश्चयनय तो एवंभूत नय है और दो द्रव्योंके सम्मेलनसे बने हुये अशुद्ध द्रव्यको जानना रूप प्रयोजनको धारनेवाली व्यवहारनय है। उन दोनों नयोंसे निर्देश करने योग्य आदि पदार्थोके उदाहरण आगममार्गका अतिक्रमण न करके बना लेने चाहिये । वस्तुके विकल अंशको कहनेवाले विकलादेशी नयवाक्यसे और वस्तुके सम्पूर्ण अंशोंको कहनेवाले सकलादेशी प्रमाणवाक्यसे नय और प्रमाणोंके द्वारा दृष्टान्त बना लेना, उसको जिस प्रकार कि थोडासा दिखलाते हैं। सात तत्त्वोंमें प्रथम ही जीव पदार्थ है। उसका निर्देश यों करना कि निश्चय नयसे तो अनादि कालसे परिणाम करते चले आरहे चैतन्यस्वरूप जीवपने करके परिणत होरहा जीव है जिसको कि पारणामिक भावस्वरूप होनेमें किसी कर्मके उदय, क्षय, उपशम, और क्षयोपक्षमकी अपेक्षा नहीं है और व्यवहारपनसे औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, और औदयिक, इन चारो भावोस्वरूप परिणत हो रहा जीवका कथन किया जाता है । २ निश्चयनयसे जीव अपने स्वकीय परिणामोंका स्वामी है और व्यवहार नयसे परद्रव्यके सम्बन्ध निमित्तसे होनेवाले भी सभी परिणामोंका स्वामी है। स्त्री, धन, घोडा, गृह, आदिका भी स्वामी है।३ निश्चयनयसे जीवका साधन केवल सुख, सत्ता, चैतन्य, आदि जीबपना ही है, जो कि पारिणामिक भाव है और व्यवहार नयसे उपशमसम्यक्त्व, क्रोध, आदि चारों प्रकारके भावोंकरके जीव साधा जाता है, इनमें दशप्राण भी गर्मित हैं। ४ निश्चयनयसे जीवके अपने प्रदेश ही आधार हैं और व्यवहारनयसे शरीर, गृह, भूमि आदि अधिकरण हैं। ५ निश्चय नयॐ अनादिसे अनन्तकालतक जीवित रहनेके समयों तक जीवकी स्थिति है और व्यवहार नयसे दो समयको आदि लेकर दसप्राणोंका धारण करना आदि स्थिति है अथवा जीवित रह चुका जीवित है, जीवित रहेगा इस निरुक्तिसे अनादि अनन्तकालतक भी जीवकी स्थिति है । ६ निश्चय नयसे जीवके अनन्त ही प्रकार हैं। जितने जीव हे उतने ही भिन्न भिन्न प्रकारके व्यक्तिखरूप हैं किसी प्रकार जातीयता नहीं हैं और व्यवहारनयसे नारकी, देव, मनुष्य, तिर्यंच, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, बादि शबसे कहने योग्य असंख्यात भेद हैं और जीवोंके सूक्ष्मज्ञानसे समझने योग्य असंख्यात भेद हैं। तथा अत्यन्त सूक्ष्म रूपसे अनन्त जातिवाले अनन्स प्रकार हैं। इस प्रकार दोनों नयोंसे जीवके निर्देश आदिक छहोंका उदाहरणपूर्वक अधिगम कर लेना चाहिये ।