Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वाचिन्तामणिः
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कोई सम्बन्ध ही नहीं मानते हैं, ऐसी दशामें स्वस्वामिसम्बन्ध भी उनके यहां नहीं बनता है । इन बौद्धोंके सन्मुख विशिष्ट देश, विशिष्ट कालके नियमकरके पदार्थोकी उत्पत्ति देखी जाती है। अतः परतंत्रतारूप सम्बन्धको सिद्ध कर दिया है। लोकमें अनेक पदार्थोकी द्रव्य, क्षेत्र, काल
और भावोंसे प्रत्यासत्तियां देखी जा रही हैं । ये चारों ही प्रत्यासत्तियां स्पष्टरूपसे सम्बन्ध हैं। सम्बन्धियोंका कथंचित् एकपनको प्राप्त हो जाना रूपश्शेष है। दोपनेकी रक्षा होते हुये भी यह सम्बन्ध बन जाता है । अन्तररहितपना, अप्राप्तोंकी प्राप्ति हो जाना इन परिणतियोंको भी सम्बन्धपना सिद्ध है । यहां फिर बौद्धोंके साथ लम्बा चौडा शास्त्रार्थ होकर क्रियाकारक आदिकी व्यवस्था करते हुये उनके सम्बन्धको वास्तविक बताकर स्वस्वामिसम्बन्धको भी दृढतासे सिद्ध कर दिया है। तीसरे साध्यसाधनभावका भी बौद्ध खण्डन करते हैं। वे कहते हैं कि कारणोंकरके सत् या वस्तु नहीं बनाई जाती है। वर्तमान दो में रहनेवाला सम्बन्ध विधमान और अविद्यमान कारण कार्योंमें नहीं ठहर सकता है। इत्यादि प्रकारोंके आक्षेपोंका प्रतिघात स्वयं उन बौद्धोंके ऊपर ही लागू हो जाता है। अकार्यकारणभावमें भी उक्त विकल्प उठाये जासकते हैं। इस अवसरपर बौद्धोंको बहुत लज्जित होना पडा । उनके अस्त्र उन्हींके लिये हानिप्रद हुये हैं। कारकपक्षके अनुसार कार्यकारणभाव
और ज्ञापकपक्षका अवलम्ब लेनेपर ज्ञाप्यज्ञापक भावकी प्रतीतियां बाधारहित होकर प्रसिद्ध हो रही हैं। कार्योंकी उत्पत्ति और अनुमान व्यवस्थाको माननेवाले वादी उक्त मार्गके पथिक अवश्य बनेंगे । सम्बन्धकी सम्बन्धियोंमें एकदेश और पूर्णदेशसे वृत्तिका विचार कर कयंचित् तादात्म्यरूप वृत्ति निर्णीत की गयी है । जैसे कि चित्रज्ञानकी अपने आकारोंमें वृत्ति हो जाती है। अन्वय व्यतिरेकके अनुसार निकटदेशवर्ती या दूरदेशवर्ती पदार्थोंमें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावों करके कार्यकारणसम्बन्ध होना इष्ट है । व्यवहारनयसे कार्यकारणभाव है । संग्रह और ऋजुसूत्र नयसे नहीं है । वास्तविक परिणतियोंके अनुसार प्रमाणोंद्वारा कार्यकारण भावकी सिद्धि है । अन्यथा मोक्ष, बन्ध, आदिके साधनोंका अभ्यास करना व्यर्थ पडेगा । ब्रह्माद्वैतवादी और क्षणिकवादियोंके मतमें कार्यकारणभाव नहीं बनता है । किन्तु कथंचित् नित्य, अनित्यको माननेवाले स्याद्वादियोंके यहां साध्य-साधनभाव प्रसिद्ध हो रहा है । आगे चलकर आधार आधेयको न माननेवालोंके प्रति द्रव्य,गुण, आदिकोंका दृष्टान्त देकर अधिकरण सिद्ध किया है। सम्पूर्ण द्रव्योंका आश्रय होता हुआ आकाश स्वयं अपना भी आश्रय है। अतः अनवस्था दोष नहीं । व्यवहारनयसे आश्रय आश्रयीभाव है, निश्चयनयसे सम्पूर्ण पदार्थ स्वयं अपने आपमें प्रतिष्ठित हो रहे हैं । इसके आगे पदार्थोकी कुछ कालतक स्थितिको साधनेके लिये बौद्धोंके क्षणिक एकान्तका निराकरण कर सन्तान, समुदाय, आदिकी व्यवस्था बताई है। यहां बौद्धोंसे माने गये कल्पित सन्तान या समुदायका खण्डन कर एकद्रव्य-प्रत्यासत्तिवाले पदार्थोंमें सन्तान सन्तान भाव साधा है । अन्यथा अपराध किसीने किया और दण्ड अन्यको मिला, इस ढंगसे कृतनाश और अकृतका आगमन दोष