Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्याचन्तामणिः
ग्राह्यग्राहक भाव, बाध्यबाधक भाव, आदिसे शून्य हो रहे और स्वयं बौद्धोंके द्वारा इष्ट किये गये ऐसे शुद्धसंवेदनका साधन करना तो वास्तविकरूपसे ग्राह्यग्राहकभावके न होनेपर केवल स्वयं बौद्धोंके स्वीकार करनेसे स्वतः अथवा दूसरे जैन, मीमांसक आदिके स्वीकार करनेसे परके द्वारा भी नहीं घटित होता है। अन्यथा अतिप्रसंग हो जायगा अर्थात् प्रमेय और प्रमाण का ग्राह्याग्राहकभाव न होते हुये भी चाहे जिसके माननेसे या अपनी इच्छासे यदि अभीष्ट तत्त्वोंको साधा जायगा तब तो सब मिथ्याज्ञानियोंके मनोरथ सिद्ध हो जायेंगे। चाहे जिस अलीक पदार्थकी सिद्धि बन बैठेगी। यदि कल्पित व्यवहारसे कुछ देरके लिये ग्राह्यग्राहकभावको मानकर इष्टतत्त्वका साधन करना घटित हो ही जायगा, इस प्रकार कहोगे तब तो आप बौद्धोंका वास्तविक पदार्थरूपसे सद्भूत ( वास्तविक ) माना गया केवल संवेदन भी कल्पनासिद्ध समझा जायगा । क्योंकि द्वैतरूप भेदोंको जाननेवाला - व्यवहार जैसे वास्तविक नहीं है, कल्पित है, उसीके समान कल्पनासे गढलिये गये ग्राहक द्वारा जानने योग्य होनेके कारण शुद्धसंवेदन भी पारमार्थिक न बन सकेगा। कोरी कल्पनाका विषय समझा जायगा। जैसे कि छोटे बालक खेलते समय अपने मनमें अपनेको राजा मान लेते हैं।
खरूपस्य खतो गतिरिति चेत्, कुतस्तत्र संशयः ? तथा निश्चयानुपपत्तेरिति चेन्न, सुगतस्यापि तत्र तत्प्रसंगात् । तस्य विधूतकल्पनाजालत्वान्न स्वरूपे संशय इति चेत् । तदिदमनवस्थितप्रज्ञस्य सुभाषितं संवेदनाद्वैततत्त्वं प्रतिज्ञाय विधूतकल्पनाजाल: सुगतः, पृथग्जनाः कल्पनाजालावृतमनस इति भेदस्य कथनात् ।
यदि बौद्ध यों कहें कि शुद्धसंवेदनके स्वरूपकी तो स्वयं उसीसे ज्ञप्ति हो जाती है, ऐसा कहनेपर तो हम जैन उन बौद्धोंसे पूछेगे कि उस शून्यसंवेदनमें संशय होनेका क्या कारण है ! जो स्वतः संवेद्यमान है वह. तो अपने स्वयं जीवित रहनेके समान दिनमें, रातमें, गृहमें, वनमें, पण्डितको, मूर्खको, दरिद्रको, धनाढ्यको, सबको सदा सर्वत्र प्रतिभासता रहता है । कोई शिशु भी उसमें संशय नहीं करता है । किन्तु आप बौद्धोंके माने गये संवेदनमें अनेक पुरुषोंको सन्देह हो रहा है । यदि बौद्ध यों कहें कि तिस प्रकार शुद्धसंवेदनका निश्चय नहीं सिद्ध होनेके कारण कतिपय जीवोंको संशय हो जाता है अथवा निर्विकल्पक होनेसे सम्वेदनका तिस प्रकार निश्चय होना असिद्ध है। इसपर आचार्य कहते हैं कि सो यह तो न कहना। क्योंकि आपके इष्टदेवता बुद्धको भी उस संवेदनमें निश्चय न होनेसे उसे संशय होनेका प्रसंग होगा। आपने बुद्धके निर्विकल्पक ज्ञान माना है, निश्चय ज्ञान नहीं माना है। यदि बौद्ध फिर यों कहें कि वह बुद्ध तो कल्पनाके जालोंसे छूटा हुआ है। अतः शुद्धसंवेदनके स्वरूपमें उसको संशय नहीं होता है । संशय भी तो कल्पना ज्ञान है, ऐसा माननेपर तो हमको कहना पडता है कि सो यह अच्छा भाषण ( उपहास ) उस पुरुषका है जिसकी कि विचारशालिनी बुद्धि किसी निर्णीतमार्गपर स्थित नहीं रहती है । भावार्थ-यह बौद्धोंके द्वारा