Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामाणः
ननु पूर्वसूत्र एवाधिगमस्य हेतोः प्रतिपादितत्वात् किं चिकीर्षुरिदं सूत्रमब्रवीत् इति चेत् । ___ यहां शंका है कि हेतुओंसे तत्त्वार्थोके अधिगमका प्रतिपादन करना जब पूर्वसूत्रमें ही कहा जा चुका है तो क्या करनेकी इच्छासे आचार्यने इस " सत्संख्या" आदि सूत्रका प्रतिपादन किया, बताओ ! इस प्रकार शंका होनेपर तो श्रीविद्यानन्द आचार्य उत्तर देते हैं कि- ..
सदादिभिः प्रपंचेन तत्त्वार्थाधिगमं मुनिः। संदिदर्शयिषुः प्राह सूत्रं शिष्यानुरोधतः ॥ १॥
अतीव विस्तारके साथ सत्संख्या आदिकों करके तत्वार्थोके अधिगमको भले प्रकार दिखला. नेकी इच्छा रखनेवाले श्रीउमास्वामी मुनि महाराज शिष्योंके अनुरोधसे सत्संख्या आदि सूत्रको प्रकाण्ड विद्वत्तापूर्वक स्पष्ट कहते भये ( कहरहे हैं)।
__ये हि शिष्याः संक्षेपरुचयस्तान् प्रति “ प्रमाणनयैरधिगमः" इति सत्रमाह । ये च मध्यमरुचयस्ता प्रति निर्देशादिसूत्रं । ये पुनर्विस्तररुचयस्तान् प्रति सदादिभिरष्टाभिस्तत्वार्थाधिगमं दर्शयितुमिदं सूत्रं, शिष्यानुरोधेनाचार्यवचनप्रवृत्तेः।
जो शिष्य नियम करके संक्षेपसे ही समझनेकी रुचि रखते हैं, चाहे वे कुशाप्रबुद्धि हों या थोडी समझनेकी शक्ति रखते हों, उनके प्रति आचार्य महाराजने “ प्रमाणनयैरधिगमः " यह सूत्र पहिले कहा और जो शिष्य न अधिक संक्षेप और न अधिक विस्तार, किन्तु मध्यमरूपसे प्रबोधकी अभिलाषा रखते हैं, उनके प्रति अधिगमका उपाय समझानेके लिये फिर " निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः " यह सूत्र कहा । किन्तु फिर भी जो शिष्य अतीव विस्तारसे समझनेकी उत्कण्ठा रखते हैं, ये भले ही विशदबुद्धिवाले हों या अधिक कहे जानेपर कुछ समझनेकी टेव रखते हों, उनके प्रति " सत्संख्या " आदि आठ अनुयोगों करके तत्वार्थोके अधिगमको दिखलानेके लिये "सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्व" यह सूत्र कहा है। क्योंकि विनीत शिष्योंके अनुरोध अनुसार आचार्योंके वचनोंकी प्रवृत्ति हो रही देखी जाती है । अर्थात् शिष्य जिस ढंगसे समझ सकें उसीके अनुसार आचार्य महाराज तत्त्वोंका उपदेश देते हैं । परोपकारी आचार्य महाराजका मिन भिन्न जातिके क्षयोपशमवाले शिष्योंको विप्रलम्भ करानेमें कोई गाठका प्रयोजन नहीं सधता है।... - नास्तित्वैकांतविच्छित्त्यै तावत् प्राक् सत्प्ररूपणं । . सामान्यतो विशेषात्तु जीवाद्यस्तित्वविच्छिदे ( भिच्छिदे) ॥२॥
तिन अनुयोगोंमें सामान्यरूपसे नास्तिपनके एकान्तको निराकरण करनेके लिये और विशेषरूपसे तो जीव आदिक सम्बन्धी अस्तिपनके निषेधके वारणार्थ प्रथम ही सत्की प्ररूपणा की है।