Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थलोकवातिक
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लागू होता है। ऋजुसूत्र नयसे क्षणमात्र ठहरते हुये भी पदार्थ वास्तविक परिणतिके अनुसार व्यवहार नयसे अनेक समयोतक ठहरनेवाले भी प्रतीत हो रहे हैं । प्रमाण तो नाना समयोंतक ठहरनेवाले पदार्थोको जान रहा है । सबको एक ब्रह्मस्वरूप माननेवाले ब्रह्माद्वैतवादियोंके प्रति हेतुओंसे पदायोंके नाना प्रकारोंकी सिद्धि की है। ग्राह्यग्राहक विधा, अविद्या आदि भेदोंसे पदायोंमें विशेषातायें हैं। इस प्रकार प्रमाणस्वरूप निर्देश आदिकोंकरके और उनके विषयस्वरूप निर्देश्यत्व आदिकों करके अधिगति और अधिगम्यमानता की जाती है। युक्ति और आगमके अविरोधसे जीव, अजीव, आदि तत्वोंमें प्रमाण, नयों, द्वारा उदाहरण समझ लेनेका ग्रन्थकारने आदेश किया है । प्रन्यके गौरव हो जानेका लक्ष्य कर अधिक लम्बा चौडा विवेचन नहीं किया गया है।
स्याद्वादोगतबर्द्धमानहिमवत्पांगतो नि:सृता। खान्यज्ञप्तिधृताजटाक्तजिनभृद्वीपाङ्गविगौतमात् ।। सन्समाप्तहिताप्यकुण्डवदुमाखाम्याननावाहिता। निर्देशादिकणान् विकीर्य जिनवाग्गङ्गा पुनात्वाशु नः॥
न केवलं निर्देशादीनामधिगमस्त स्वार्थानां किं तर्हि। ..
अब अग्रिमसूत्रके अवतरणके लिये एककार्यत्व नामकी संगतिको दिखलाते हैं कि केवल निर्देश आदिकोंके द्वारा ही जीव आदिक तत्वअर्थीका अधिगम नहीं होता है तो क्या है ? बताओ। इसका उत्तर यह है कि अन्य भी अधिगमके उपाय हैं, वे कौन उपाय है ! ऐसी जिज्ञासा होनेपर पूज्यचरण श्रीउमास्वामी महाराज सूत्रको कहते हैं किसत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च ॥ ८॥
१ सत्तासहितपन २ संख्या ३ निवासस्थान ४ तीनों कालसम्बन्धी निवासस्थल ५ काल ६ विरह ७ परिणमन ८ थोडाबहुतपन, इन करके भी रत्नत्रयका और जीव आदिक पदार्थोका विशद अधिगम होता है।
स्वार्थोऽधिगमो ज्ञानात्मकः, परार्यः शद्वात्मकैः कर्तव्य इति घटनात् ।
ज्ञान आत्मक ( स्वरूप ), सत्संख्या, आदिकोंकरके स्वयं अपने लिये अधिगम होता है। कारण कि प्रतिपादकको स्वयं अपने हितार्थ ज्ञप्ति करनेके लिये करणज्ञानका अन्वेषण करना आव. श्यक है और शद्वस्वरूप सत्संख्या आदिकों करके दूसरोंके लिये अधिगम किया जाना चाहिये । क्योंकि प्रतिपाद्य श्रोता अपनी प्रतिपत्तिको शद्रोंके द्वारा कर लेता है । इस प्रकार विद्वानोंके सम्प्रदायमें घटित हो रहा है।